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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४३४) अष्टांगहृदय । अ० १५ रक्तज क्रिमि । | रोमहर्ष, अग्निमांद्य, गुदामें खुजली ये सब रक्तवाहिशिरोत्थाना रक्तजा अंतवोऽणवः। | उपद्रव उपस्थित होतेहैं । अपादा वृत्तत्ताघ्राश्च सौक्ष्म्यात्कचिददर्शनान इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां केशादा लोमविध्वंसा लोमदीपा उदुंबराः।। षर ते कुष्ठैककर्माणः सहसौरसमातरः ।। भाषाटीकायां - अर्थ-सब प्रकारके रक्तजक्रिमि रक्तवा निदानस्थाने कुष्ठश्वित्रकृमिनिदानं ही सिराओंमें उत्पन्न होते हैं । ये बहुत नाम चतुर्दशोऽध्यायः । सूक्ष्म, पादरहित, गोलाकार और तामूवर्ण होतेहें, कोई कोई इतने पतले होतेहैं कि पंचदशोऽध्यायः। दिखाई भी नहीं देते । ये नाम भेदसे छः प्रकारके होते है, यथा-केशाद, लोमविध्वंस लोमद्वीप, उदुंवर, सौरस और मातृ ।। अथाऽतो वातव्याधिनिदानं व्याख्यास्यामः । विडभेदादि पांच प्रकार के क्रिमि। | अर्थ-अब हम यहां से वातव्याधि पक्काशये पुरीषोत्था जायतेऽधोविसर्पिणः। निदान नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । वृद्धास्ते स्युर्भवेयुश्च ते यदाउमाशयान्मुखाः अर्थानर्थ में वायु का हेतुत्व । तदास्योद्वारनिःश्वासा विगंधानुविधायिनः “सर्वार्थानर्थकरणे विश्वस्यास्यैककारणम्। पृधुवृसतनुस्थूलाः श्यापपीतसितासिताः॥ भदुष्टदुष्टः पवनः शरीरस्य विशेषतः ॥१॥ ते पंच नाम्ना कमयः ककेरुकमकेरुकाः। अर्थ-अदुष्ट ( शुद्ध ) और दुष्ट (बिसौसुरादाः सलूनाख्या लेलिहा जनयंति च | | गडा हुआ ) वायु इस संपूर्ण जगत का विभेदशूलविष्टंभकार्यपारुण्यपांडुताः। रोमहर्षाग्निसदनगुदकंड्रावीनर्गमात्,,॥५६ शुभ और अशुभ करने में प्रधान कारण अर्थ-पुरीषजक्रिमि पक्काशयमें उत्पन्न है अर्थात् शुद्धवायु से जगत की उत्पत्ति होतेहै और ये माचे को रेंगा करतेहैं । और और स्थिति रहती है तथा दूषितवायु विसूबडे होनेपर आमाशय की ओर मुख करलेते चिका, महामारी आदि अनेक भयंकर रोगों है। उस समय रोगी की डकार और निः- को उत्पन्न करके संसार का प्रलय करदेती श्वासमें विष्टाकी सी दुर्गंध आने लगती है, है । तथा शरीर का शुभाशुभ विशेषरूप इनमेंसे कितनेही मोटे, कितनेही गोल, स्थूल से करती है। श्याववर्ण, पीत, सित, और असित होते हैं। वायु के हेसु रूप होने में कारण । नामभेदसे ये पांच प्रकारके होते हैं, यथा- स विश्वकर्मा विश्वात्मा विश्वरूपःप्रजापतिः स्रष्टा धाता विभुर्विष्णुः संहर्ता मृत्युरंतकः २ ककेस्क, मकेरुक, सौसुराद,सलूनाख्य, और तंददुष्टौ प्रयत्नेन यतितव्यमतः सदा । लेलिह । इनके उत्पन्न होनेसे मलभेद, अर्थ-यह वायु विश्वकर्मा, विश्वात्मा, शूल, विष्टंभ, कृशता, कर्कशता, पांडुता, ( विश्वरूप, प्रजापति, स्रष्टा, धाता, विभु, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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