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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ४३२ ) www.kobatirth.org अष्टांगहृदय | में पाणिपादाश्रित स्फोटादि निज लक्षण तथा स्वागत और रक्तगत लक्षण भी होते हैं, इसी तरह मेदोगत के जानने चाहिये । वित्र कुष्ठका निरूपण । कुष्ठैकसंभवं श्वित्रं किलासं दारुणं च तत् । निर्दिष्टमपरित्रावि त्रिधातूद्भवसंश्रयम् । अर्थ - चित्र और कुछ इन दोनों रोगों की उत्पत्ति का कारण एकही है और इनकी चिकित्साभी एकही है इसीलिये कुष्ठाधिकार में इसका वर्णन किया गया है । इसी को किलास और दारुणभी कहते हैं इन दोनों में अंतर यही है कि कुष्ठसान पातिक है और चित्र अलग अलग दोनों से उत्पन्न होता है । कुष्ठ स्रावी हैं, श्वित्र अपरिस्रावी है । कुष्ठ रसादि सात धातुओं पर आक्रमण करता है और श्वित्र रक्तमांस और मेदका आश्रय करता है । बातजादि शुक्र के लक्षण | वाताद्रक्षारुणं पित्तात्तानं कमलपत्रवत् । सदाहं रोमविश्वास कफाच्छ्वेतं घनं गुरु । खकंडु च क्रमागुक्तमांसमेदःसु चादिशेत् । अर्थ- वातज शुक्र रूक्ष और लालवर्ण का होता है । पित्तज श्वित्र तामुवर्ण वा कमलपत्र के समान होता है, यह दाहयुक्त और रोमविध्वंसी होता है । कफजश्वित्र सफेद, घन, भारी और खुजली से युक्त होता है । ये क्रम से रक्त, मांस और मेदा में होते है । अर्थात् वातज रक्तमें, पित्तज मांस और कफज मेद में होता है । कृच्छ्रसाध्य श्वित्र के लक्षण | वर्णेनैवेडगुभयं कृच्छ्रं तच्चोत्तरोत्तरम् । अर्थ - - अरुणादि वर्ण द्वारा श्वित्र के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १४ वातादिक दोष और रक्तादि आश्रय दोनों ही जाने जाते हैं, अर्थात् अरुण वर्ण वाला वित्र वातज और रक्ताश्रयी होता है । ताम्र वर्ण वाला वित्र पित्तज और मांसाश्रयी होता है तथा श्वेतवर्णं श्वित्र कफज और मेद का आश्रयी होता है । ये उत्तरोत्तर कृच्छ्रसाध्य होतेहैं अर्थात रक्तज खित्र कृच्छ्र, मांसज कृच्छ्रतर और मेदोज कृच्छ्रनम होता है। वित्र का साध्यासाध्यत्व | अशुक्ल रोमाऽबहुलमसंसृष्टं मिथो नवम् । अनग्निदग्धजं साध्यं श्वित्रं वर्ज्यमतोऽन्यथा गुह्यपाणितलोष्ठेषु जातमप्यचिरंतनम् | अर्थ-यदि श्वित्रके स्थान के रोम श्वेत न हुए हैं, सघन नहीं, आपसमें एक दूस रेसे मिला न हो, और नवीनहो और अग्नि से दग्ध न हुआ हो तो साध्य होता है और इन लक्षणोंसे विपरीत लक्षण वाला असाध्य होता है | गुह्यदेश [ योनि वा लिंग ], ह थेली पगतली, और ओष्ठ इनमें उत्पन्न हुआ चित्र यदि बहुत दिनका न हो तो भी असाध्य होता है । For Private And Personal Use Only सब रोगों को संचारित्व 1/ स्पर्शैकाहारशय्यादि सेवनात्प्रायशो गदाः । सर्वे सचारिणो नेत्रत्वग्विकाय विशेषतः । अर्थ- प्रायः संपूर्ण रोग देह के स्पर्शाने, एक साथ बैठकर भोजन करने से, एक शय्या पर शयन करने से वा ऐसेही एकत्र वेठ कर अन्य काम करनेसे संक्रामक हो जाते हैं, अर्थात् एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य पर लगजाते हैं । परन्तु नेत्ररोग और त्वचारोग विशेषरूप से संक्रामक होते हैं ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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