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निदानस्थान भाषाटीकासमंत ।
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है, पीछे यह श्वेत पीतादि अनेक वर्ण का | गत कुष्ठ कृच्छ्रसाध्य होते हैं । कफवातज होजाताहै और सब कुष्ठोंके लक्षण इसमें कुष्ठ सुखसाध्य होते हैं, तथा त्वचा में पाये जातहैं । सुश्रुतमें और भी कई प्रकार स्थित कुष्ठ अथवा एक दोषसे उत्पन्न कुष्ठ के कुष्ठ लिखे हैं। वे ग्रंथ बढजाने के | भी सुखसाध्य होते हैं। भय से यहां नहीं लिखे गये हैं।
त्वचादिगत के लक्षण !:: कुण्ठमें दोषोंकी आधिकता। तत्र त्वचि कुष्ठे तोदवैवर्ण्यरूक्षताः॥ ३३ ॥ दोषभेदीयविहितैरादिशेल्लिगकर्मभिः। ।
स्वेदस्वापश्वयथवः शोणिते पिशिते पुनः।
पाणिपादाश्रिताः स्फोटाः क्लेदः संधिःकुष्ठेषु दोषोल्बणताम्
चाधिकम् ॥ ३४॥ अर्थ-दोषभेदीयाध्यायों कहेहुए लक्षण और
कोण्यं गतिक्षयोऽगानां दलनं स्याच्च मेदसि कर्मसे कुष्ठरोगों में दोर्षोंकी अधिकता सम- नासाभगोऽस्थिमजस्थेनेत्ररागःस्वरक्षयः। झना चाहिये, अर्थात् जिस दोषकी अधि- क्षते च कृमयः शुक्रे स्वदारापत्यबाधनम्। कता हो उसी दोष की अधिकता वाला
__ अर्थ-त्वचा में स्थित हुए कुष्ठ में तोद त्रिदोषज कुष्ठ कहलाताहै।
विवर्णता शौर रूक्षता होती हैं । रक्तगत कुष्ठ विशेष में चिकित्सा त्याग । .
कुष्ठ में स्वेद, स्पर्श के ज्ञानका अभाव और सर्वदोषोल्वणम् त्यजेत् ॥ ३१ ॥
सूजन होती है । मांसगत कुष्ठ में हाथ रिष्टोक्तम्यच्च
और पांव में फोडे तथा संधियों में क्लेदकी ___ यच्चाऽस्थिमज्जशुक्रसमाश्रयम् । अधिकता होती है । मेदोगत में टोटापन __ अर्थ-जिस सन्निपातज कुष्ठ में तीनों / गतिका क्षय और अंगों में दलने कीसी दोषोंकी अधिकता हो वह त्यागने के योग्य वेदना होता है । अस्थिगत और मज्जागत है । तथा विकृतविज्ञानीयाध्याय में कहे | में नासाभंग, नेत्रों में ललाई और स्वरका हुए विशीर्यमाणांगं इत्यादि लक्षणों से युक्त | क्षय होता है । शुक्रगत होने पर घाव में कीडे कुष्ठ त्याज्यहै, एवं जो कुष्ठ अस्थि मज्जा, | पडजाते हैं इस रोगसे स्त्री और संतानको और शुक्र में पहुंच गयाहै वह भी त्यागने | भी पीड़ा पहुंचती है। के योग्यहै ।
रक्तादि में यथापूर्व लक्षण। ____ कुष्ठमें साध्यासाध्य विचार ।
यथापूर्व व सर्वाणि स्युलिंगान्यसृगादिषु । याप्यं मेदोगतम्
। अर्थ-रसरक्तादि धातुगत कुष्टों में अपने कृच्छ्रे पित्तद्वंद्वानमांसगम् ॥ ६२॥ अकृच्छ्रे कफवाताढयम् त्वक्स्थमेकमलम्
अपने लक्षणों के अतिरिक्त यथापूर्व धातु
__ च यत् । गत कुष्ठों के लक्षण भी होजाते हैं । अ. अर्थ-मेदोगत कुष्ठ पथ्यादि सेवन से | र्थात् रक्तगत कुष्ठ में स्वेदादि निज लक्षण याप्य होजाता है । पित्तद्वन्द्वज ( वात पित्त | भी होते हैं, तथा पहिले वाले त्वचा के वा पित्तकफ) कुष्ठ अथवा रक्त और मांस | तोदादि लक्षण भी होते हैं । मांसगत कुष्ठ
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