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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मं० २१ www. kobatirth.org लिह्यात्क्षौद्रेण वा चिकित्सितस्थान भावाटीकासमेत । श्लेष्माममेदाबाहुल्याद्युक्तथा तत्क्षपणान्यतः कुर्याद्रक्षोपचारांश्च यवश्यामाककोद्रवाः ॥ शाकैरलवणैः शस्ताः किंचित्तैलैर्जलैः शुतैः जांगले रघु ते ममष्वंभरिष्टपायिनः ४६ ॥ वत्सकादिहरिद्रादिर्वचादिर्वा ससैंधवैः । आमवाते सुखांभोभिः पेयः पटूचरणोऽथवा अर्थ-- ऊरुस्तंभ में यदि कफ, आम और मेदकी अधिकता हो तो स्नेहन तथा वमन और विरेचन हितकारी नहीं होते हैं । इस लिये कफ, आम और मेदा को क्षीण करने वाली औषधों का प्रयोग करना चाहिये । इस रोममें रूक्ष क्रिया,जौ, सोंखिया, कोदों धान्य, थोडा नमक और तेल मिलाकर जल में पकाया हुआ शाक, घृतरहित जांगल मांसरस, मधु मिला हुआ जल, तथा अरिष्ट और आसव हितकारी होते हैं । आमवात में सेंध नमक से युक्त वत्सकादि, हरिद्रादि बचादि वा षट्चरण ईषदुष्ण गरम जल के साथ सेवन करने चाहिये । उक्तरोग में लेहादि । श्रेष्ठाचव्यतिक्ताकणाघनान् । कल्कं समधु वा चव्यपथ्याग्निसुरदारुजम् ॥ मूत्र व शीलयेत्पथ्या गुग्गुलुं गिरिसंभवम् । अर्थ - ऊरुस्तंभ त्रिफला, चव्य, कुटकी पीपल, और नागर मोथा इनका कल्क अथवा चव्य हरड, चीता और देवदारू इन के कल्क में राहत मिलाकर अथवा हरड गूगल वा शिलाजीत गोमूत्र में मिलाकर सेवन करना चाहिये । अन्य प्रयोग । व्योषाग्निमुस्तत्रिफला बिडंगैर्गुग्गुलं समम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६७१ ) खादन् सर्वान् जयेयाधीन- मेद:श्लेष्णमवातजान् । अर्थ- त्रिकुटा, चीता, मोथा, त्रिफला और बायबिडंग, इन नौ द्रव्यों के बराबर गूगल मिलाकर खानेसे मेद, कफ, आम और वातसे उत्पन्न हुई सब प्रकार की व्याधियां शांत होजाती है | वायुके शमन का प्रयोग | शाम्यत्येवं कफाक्रांतः समेदस्कः प्रभंजनः ॥ क्षारमूत्रान्वितान् स्वेदान् सेकानुद्वर्तमानिच कुर्याल्लिह्याश्च मूत्रादयैः करंजफलसर्षपैः ॥ मूलैर्वाप्यर्क तर्कारी निवजेः ससुराह्वयैः । सक्षौद्रसर्षपापक्वलोष्ठवमकिमृत्तिकैः ५२ ॥ अर्थ - ऊपर लिखी हुई रीति से चिकित्सा करने पर कफाक्रांत संमंदस्कवायु शांत होजाती है । इस रोग में जवाखार और गोमूत्र में मिलाकर स्वेदन परिषेक और उद्वर्तन करना चाहिये । कंजा और सरसों को गोमूत्र में मिलाकर अथवा आक, तर्कारी, नीम और देवदारू इनकी जड, सरसों, कच्ची मिट्टी और वांची को मिट्टी इन सबको शहत में मिलाकर लेपकरे 1 उक्तरोग में व्यायामादि । कफक्षयार्थ व्यायामे सो चैन प्रवर्तयेत् । स्थलान्युल्लंघयेन्नारीः शक्तितः परिशीलयेत् ॥ स्थिरतायं सरः क्षेमं प्रतिस्रोतो नहीं तरे श्लेष्ममेदःक्षये चाऽत्र स्नेहादीनबचारयेत् ॥ अर्थ - उरुस्तंभवाले रोगी को कफ के क्षय के निमित्त सहने के योग्य व्यायाम करने में प्रवृत करे किसी जगह का लांघना, शक्ति के अनुसार स्त्रीसेवन, बंध हुए जलवाले और प्राहादि से वर्जित तालाव में अथवा For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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