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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मष्टांगहृदय । हरड़, हींग, पुष्करमूल और तीनों नमक, | मरता नहीं है, परन्तु उसका शरीर झुक इनका चूर्ण बनाकर जौ के काथके संग पान जाताहै, देहमें जकडन होजाती है, लला, करै । हृदयका दर्द, पसली का दर्द, और लंगडा, टोंटा, पक्षाघात प्रस्त और विकलांग अपतंत्रक में हींग, कालानमक, सौंठ, अनार होजाता है । हनुस्रंसरोग में दोनों हनुओंको और अम्लवेत इनका चूर्ण जौ के क्वाथके स्नेहन और स्वेदन द्वारा स्निग्ध और स्विन्न साथ सेवन करे, तथा वातकफजन्य हृदयरोग । करके यथास्थानमें लगा देवै । जो मुख खला में कही हुई संपूर्ण औषधियो को काममें लावै । रहजाय तो कुशल वैद्यको उचित है कि आयाम में चिकित्सा । | ठोडी को ऊंची उठावै । संवृत मुखमें ठाडी आयामयोरर्दितवद्वाह्याभ्यंतरयोः क्रिया ॥ को नीचे नवावै शेष रोगों में एकायाम की तैलद्रोण्यां च शयनमांतरोऽत्र सुदुस्तरः।। तरह चिकित्सा करै। अर्थ-वहिरायाम और अंतरायाम की जिव्हास्तंभ की चिकित्सा । चिकित्सा अर्दितके समान करना चाहिये । जिहास्तंभे यथावस्थं कार्य वातचिकित्सितम् रोगी को तेलको द्रोणी में शयन करावै ।। अर्थ-जिव्हास्तंभ में अवस्था के अनुसार इन दोनों में अंतरायाम बहुत कष्टसाध्य हो- | वातरोग की चिकित्सा करनी चाहिये । .. ताहै। ___अर्दितरोग की चिकित्सा । विवर्णता का फल । अदिते नावनं मुनि तैलं श्रोत्राक्षितर्पणम् ॥ विवर्णदेतवदनः स्रस्तांगो नष्टचेतनः ३८॥ | सशोफे धमनं दाहरागयुक्त सिराव्यधः। प्रस्विनंश्च धनुकभी दशरात्रंन जीवति । । अर्थ-अर्दित रोगमें नस्य , सिर में तेल अर्थ-जिस धनुष्कंभवाले रोगी के दांतों | तथा कान और आंख का तर्पण हित है। का रंग बिगड जाय, देह कुरूप होजाय, | जो अर्दित सूजनसे युक्त होतो वमन तथा अंगशिथिल हो, होश हवास जाते हैं,देहपर | दाह और रोगसे युक्त हो तो फस्द खोलना पसीने आने लगे तो वह रोगी दस दिनमें | चाहिये । ही मरजाता है। पक्षाघात में चिकित्सा । . मंदबेग में चिकित्सा । मेहन स्नेहसंयुक्तं पक्षाघाते विरेचनम् ४३ धेगेष्वतोऽन्यथा जीवेन्मेदेषु विनतो जडः॥ | अर्थ-पक्षाघात में स्नेहन तथा स्नेहयुक्त | विरेचन दैना हित है। खजः कुणि पक्षहतः पंगुलो विकलोऽथवा हनुस्रंसे हनु स्निग्धस्विन्त्री स्वस्थानमानयेत् । अबवाह में नस्यादि । उन्नमयेश कुशलश्चिबुकं विवृते मुखे। अबबाहौ हितं नस्यं स्नेहश्चोत्तरभक्तिकः। नामयेत्संवृते शेषमेकायामवदाचरेत् ४१॥ अर्थ- अबवाह रोगमें नस्य तथा भोजन अर्थ-धनभवाले रोगी के पदि ऊपर के पीछे स्नेहपान हित है। . लिख हुए बुरे लक्षण उपस्थित न हुए हो ऊरस्तंभमें नस्यादि निषेध। . और वायु का ग भी यदि कमहो तो रोगी अरुस्तमगच स्नेहो न संशोधनं हितम For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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