SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 766
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. २० चिकित्सितस्थान भोपाठीकासमेत । (१९९) करे। यह महास्नेह परिषक, अभ्यंग, अव- पोनिव्यापद्गुल्मषध्मोगा AR गाह, अन्नपान, नस्य और अनुवासन द्वारा अर्थ-लोध भाठ पल, त्रिफला-फर प्रयोजित किये जानेपर वात का नाशकरत | स्थ, वृहत्पंचमूल, भरंड, कटेरी और निसोहै, तथा सम्यक स्नेह और स्वेदन से भी थ प्रत्येक एक पल इनको एकद्रोण जलेमें घातका नाश होता है। पकावै, जब चौथाई शेषरहै तम दही एक बेगांतर में शिरोविरेचनादि। ढक, जवाखार तीन पल और घी एक धेगांतरेषु मुर्धानमसकृच्चास्य रेचयेत् ३ प्रस्थ डालकर पाकबिधि के अनुसार पाक अवपीडैः प्रधमनैस्तीक्ष्णैः श्लेष्मनिवर्हणैः। करे, इसके सेवन से दुष्टवान, एकांगवात, सनासु विमुक्तासु तथा संज्ञां स विदति सागवात, योनिरोग, गुल्म, वर्म और अर्थ-उक्त वातरोगों में जब वायुका उदररोग शांत होनाते हैं। बेग शांतहो तव कफको निकालने वाले ती. अन्य विधि। 'क्षण अवपीड और प्रधमन नस्य द्वारा वार विधिस्तित्वकोयोशम्याकाशोकयोरपि बार शिरोविरेचन देवै, इससे श्वसना अर्था- . अर्थ-लोधके साथ घृतपाक करने का त् हृदयाश्रिता प्राणनाडी के कफसे मुक्तहो- जो नियम ऊपर लिखागया है, वही नियम ने पर रोगी चेत करलेता है । द्रव्यों का अमलतास और अशोक के साथ घृत पाक कल्क करके उसका रस निचोडकर जो | करनेका है। नाक में डालाजाता है उसे नीड कहते शुद्ध अपतानक की चिकित्सा ।। हैं और जो द्रव्यों का चूर्ण करके नलद्वारा | चिकित्सितमिदंकुर्याच्छुद्धधातापतानके३४ माक में फूंका जाता है उसे प्रधमन कहते हैं। | संसृष्टदोषे संसृष्टं ... वाताधिक्यमें प्रत । ___ अर्थ-अन्य दोषों के संसर्ग से रहित सौवर्चलाभयाव्योषसिद्धं सर्पिश्चलेऽधिके र शुद्ध बात से उत्पन्न हुए अपतानक में :अर्थ-कालानमक, हरड और त्रिकुटा | पर लिखी हुई चिकित्सा करनी चाहिये । हुनसे सिद्ध किया हुआ घी वातकी अधिक और जो अपतानक मिश्रित दोषों से युक्त ता में हितकारक होता है। होतो दो दोषोंकी मिश्रित चिकित्सा करनी वातनाशक अन्य घृत । चाहिये। पलाष्टकं तिल्वगतो वरायाः कफयुक्त अपतानक की चिकित्सा । मस्थ पलाश गुरुपंचमुलम् । घूर्णायत्वा कफान्विते। सैरडसिंहीत्रिवृतं घटेऽपा तुंवुण्यभयार्हिगुपाकर लवणत्रयम् ॥ पक्त्वा पचेत्पादश्रुतेन तेन ॥ ३२॥ यवकाथांना पेयं दृस्पार्धाय॑पतंग! बनः पाने यावशकात्त्रिविल्वैः हिंगु सौवर्चलं शुठी दाडिमं साम्लनेतसम्। सर्पिप्रति तत्सम्यमानमा पिता श्लेष्मपवनहद्रोगाने च शस्यते। सुंधावासोनकासपीसिंस्थान, मर्ध-कफयुक्त अपतानक में ,धनियां, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy