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रुद्धमार्ग शुक्र में कर्तव्य |
विषद्धमार्ग दृष्ट्वा तु शुक्रं दद्याद्विरेचनम् विरिक्तं प्रतिभुक्तं च पूबक्तां कारयोक्रियाम्
अर्थ- जब वायु वीर्य के मार्ग को रोकले तब विरेचन देना चाहिये, विरेचन के पीछे. पथ्य देकर पूर्वोक्त रीति से चिकित्सा करना उचित है ।
अ २१
पतानक में चिकित्सा | अथाऽपतानकेनार्तमस्त्रस्ताक्षमवेपनम् २४ अस्तब्धमेद्द्मस्वेदं बहिरायामवर्जितम् । अखट्वाघातिनं चैनं त्वरितं समुपाचरेत् ॥
अर्थ-- अपतानक रोग में यदि रोगी स्त्रस्ताक्ष ( शिथिल नेत्र ) अकंपित शरीर, अस्तब्ध मेदू, स्वेदरहित, वहिरायाम से रहित हो तथा खाट पर न सो सकता हो तो इसकी चिकित्सा बहुत शीघ्रता पूर्वक करनी चाहिये ।
युद्वारा शुष्क गर्भ में कर्तव्य | शुष्के तु वातेन बालानां च विशुष्यताम सिताकाश्मर्यमधुकैः सिद्धमुत्थापने पयः । अर्थ- वायु के द्वारा गर्भ के शुक होने पर मिश्री, कल्हारी और मुलहटी डालकर औटाया हुआ दूध पान कराने से सूखा हुआ गर्भस्थ बालक पुष्ट होजाता है ।
स्नायुगत वायु में कर्तव्य | स्नायुसंधिशिरः प्राप्त स्नेहदाहोपनाहनम् ॥ अर्थ- वायु जब स्नायु, संधि और शिरा में प्रविष्ट होजाय तब दाह और उपनाह का प्रयोग करना चाहिये । अंग के संकुचित होने पर कर्तव्य । तैलं संकुचितेऽभ्यंग माप सैंधव साधितम् ।
अर्थ - बायुद्वारा देह के सुकडजाने पर उरद और सेंधा नमक डालकर सिद्ध किये हुए तेल का मर्दन हितकारी होता है । रक्तस्राव में लेप | आगारधूमलषण तैलैर्लेपः खतेऽसृजि २३ सुप्तेऽगे वेष्टयुक्ते तु कर्तव्यमुपनाहम् ।
अर्थ - किसी अंग से रक्त का स्राव होने पर घरका धूंआं और नमक मिला हुआ तेल लगाना चाहिये जो अंग सो जाय - र्थात् जिसमें स्पर्श का ज्ञान न हो वा बांटे भाते हों तो उपनाहन करना चाहिये ।
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उक्तरोग में नस्यादि ।
तत्राव सुस्निग्धं स्थिनांगेतीक्ष्णनावनम् स्रोतोविशुद्धये गुंज्यादच्छपानं ततो घृतम् विदार्यादिगणकाथदधिक्षीररसैः शुतम् ॥ नाऽतिमात्र तथा वायुर्व्याप्नोति सहसैव वा
अर्थ - अपतानक: रोग में प्रथम ही रोगी को स्निग्ध और स्विन्न करके स्रोतों की विशुद्धि के लिये त्रिकुटादि द्वारा तीक्ष्ण नस्य देना चाहिये । पीछे विदार्यादि गण के काढे, दही दूध और मांसरस के साथ सिद्ध किया हुआ घृत का अच्छपान देना चाहिये ऐसा करने से वायु अधिकता के साथ वा अधिक वेग से व्याप्त नहीं होता हैं ।
वातनाशक स्नेहस्वेद | कुलत्थयवकोलानि भद्रदार्वादिकं गणम् । निःक्काथ्यानूपमांसं च तेनाम्लैः पयसाऽविच स्वादुस्कंधप्रतीवापं महास्नेहं विपाचयेत् ! सेकाभ्यंगावगा हान्नपाननस्यानुवासनैः ॥ संहति वातं ते ते च स्नेह स्वेदाः सुषोजिताः
अर्थ- कुलथी, जौ, बेर, भद्रदार्वादि और आप मांसका काढा बनाकर
गण,
कांजी; दूध तथा मधुरगणोक्त द्रव्यों का प्रतीबाप देकर नियमपूर्वक महास्नेह का पाक
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