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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org म० २१ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । ( ६.६.७ ] अर्थ- जब वायु दूषित होकर आमाशय | नहिकं नावनं धूमः श्रोत्रादीनां च तर्पणम् अर्थ - कुपित वायु के हृदयगामी होने पर शालिपर्णी डालकर औटाया हुआ दूध हितकारी होता है । वायु के शिरोगामी होने पर शिरोवस्ति, स्नैहिक नस्य, धूमपान और कर्णादि तर्पण का प्रयोग करना चाहिये | में चली जाय तब रोगी को वमित और प्रतिभाजित करके उसे षट् चरण वा वचादि चूर्ण गरम पानी के साथ देवै । इससे अग्नि के संधुक्षित होने पर केवल बातनाशक क्रिया करनी चाहिये । यदि वायु नाभिप्रदेश में स्थित हो तो बेलगिरी के साथ पकाई हुई मछली देवै । षट्चरण का योग संग्रह में यह लिखा है कि 'दावों कलिंगकटुकातिविषाग्निपाठामूत्रेण सूक्ष्मरजसा घर'णप्रमाणाः पीता जयंति गुदजोदर कुष्ठमेहकोष्ठानिलाढयपवनग्रहणप्रदोषानिति । अर्थात् दारूहल्दी, इन्द्रजौ, कुटकी, अतीस, चीता और पाठा इन छः द्रव्यों को गोमूत्र के साथ एक धरण अर्थात् पांचमाशे के लगभग पीने से अर्श, उदररोग, कुष्ठ, प्रमेह को ष्टानिल, वातग्रहणी दोष नष्ट होजाते हैं । अनाभिस्थ वायु में अवपीडक । बस्तिकर्मत्वधनाभिः शस्यते Verseपीडकः । अर्थ- वायु के नाभि से नीचे स्थित होने पर वस्तिकर्म और अवपीडक का प्रयोग करे | कोष्ठस्थ वायु में कर्तव्य | कोष्ठगे क्षारचूर्णाद्या हिताः पाचनदीपनाः ॥ १६ ॥ अर्थ - वायु कोष्ठगामी होने पर पाचन और अग्निसंदीपन चूर्णादि हितकारी होते हैं । हृदयादिगत वायु में कर्तव्य पयः सिरासिद्धम् शिरोवस्तिः शिरोगते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्वचागामी वायु में कर्तव्य | स्वेदाभ्यंगानि वातानि हृद्यं खानं स्वगाश्रित अर्थ - वायुके त्वचा में जाने पर ऊपर लिखे हुए स्नेहन, स्वेदन और हृदय को हितकारी द्रव्यों का प्रयोग करे | * शीताः प्रदेहा रक्तस्थे विरेको रकमोक्षणम् रक्तस्थ वायु में कर्तव्यः । अर्थ - वायु के रक्तस्थ होने पर शीतल लेप, विरेचन और रक्तमोक्षण हितकारी हैं ! मांस मेदस्थ वायु में कर्तव्य | चिरेको मांसमेदःस्थे निरुहाः शमनानि च अर्थ - वायु के मांस और मेदा में स्थित होने पर विरेचन, निरूहण और शमन क्रिया करनी चाहिये | अस्थिमज्जागत वायु | बाह्याभ्यंतरतः स्नेहैरस्थिमज्जगतं जयेत् ॥ अर्थ-वायु के अस्थि और मज्जा में स्थित होने पर स्नेह का वाह्य और अभ्यं तर प्रयोग करके उसके दूर करने का उपाय करे । शुक्रस्थ वायु में कर्तव्य | प्रहर्षोन्नं च शुक्रस्थे बलशुक्रकरं हितम् । अर्थ- शुक्रस्थ वायु में प्रहर्षण तथा बल और वीर्य को बढानेवाले अन्न हितकारी होते हैं 1 For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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