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(६६६)
- मष्टांगहृदय ।
अर्थ-जब सूखे हुए निर्जीवकाष्ठ भी | वातरोग पर घृत । स्नेह स्वेदन से जैसी इच्छा हो वैसेही उप-घृतं तिल्वकसिद्धं वा सातलासिद्धमेव वा॥ योग में लाये जा सकते हैं. तब सजीव | पयसरंडतैलं वा पिबेहोषहरं शिवम् । देहवालों का तो कहना ही क्या है।
___अर्थ-वातरोग में लोध के साथ अथवा हर्षादि का शमन । सातला के साथ पकाया हुभा घी देना हर्षतोदरुगायामशोफस्तंभग्रहादयः ॥ ६॥ चाहिये अथवा दूध के साथ अरंड का तेल स्विन्नस्याशु प्रशाम्यति मार्दव चोपजायते | देने से भी वातव्याधि शंत होजाती है ।
अर्थ-स्वेदन करने से रोमांच, तोद, वेदना, आयाम, सूजन, स्तब्धता और देह ।
वायुके अनुलोमन में हेतु ।
स्निग्धाम्ललवणोष्णाचैराहारैर्हि मळश्चितः की जकड़न जाती रहली है और शरीर नरम
स्रोतो रुध्वाऽनिल रुध्यात्तस्मात्तमनुलोमयेत् पडजाता है।
_____ अर्थ-चिकने, खट्टे,नमकीन और उष्णस्नेहमयोग का फल । बेहश्य धातून संशुष्कान् पुष्णात्याशु
वायर्यादि आहार के करने से दोष वृद्धि को __प्रयोजितः ॥७॥ पाकर स्रोतों को रोकते हुए वायुको रोक पलमग्निबलं पुष्टिं प्राणं चाऽस्याभिवर्धयेत् । | देते हैं, इसलिये वायुका अनुलोमन करना . अर्थ-स्वेदन के पीछे स्नेहका प्रयोग |
चाहिये। करने से वातरोगी की सूखी हुई धातु शीघ्रही |
विरेचनके योग्यको निम्हण । पुष्ट हो जाती हैं और उसके बल,अग्निवल, लोगोविरेच्यः स्यात्तं निरूहैरुपाचरेत् । पुष्टि और आयुकी वृद्धि होती है । दीपनैः पाचनीयैर्वा भोज्यैर्वा तद्युतैनरम् । अन्य प्रयोग।
संशुद्धस्येत्थिते चाऽग्नौ नेहस्वेदी पुनार्हतौ असकृत्त पुनः लेहः स्वेदैश्च प्रतिपादयेत् ॥ अर्थ-जो वातरोग दुर्बल और विरेचन तथा नेहमृदौ कोष्ठे न तिष्ठत्यनिलामयाः । के योग्य हो, उसे दीपन और पाचन औ___अर्थ-वातरोगी को बार बार स्नेहन
षधों से युक्त निरूहण देवे । अथवा दीपन और स्वेदन द्वारा स्निग्ध और स्विन्न करता
और पाचन द्रव्यों से युक्त भोजन करावै । रहै, क्योंकि ऐसा करने से कोष्ट कोमल हो
निरूहादि के प्रयोग से शुद्ध हुए रोगी की जाता है और वातरोग नष्ट होजाते हैं।
अग्नि के प्रदीप्त हो जाने पर फिर स्नेहन औषध का प्रयोग । योतेन सदोषत्वात्कर्मणा न प्रशाम्यति और स्वेदन देना चाहिये । मृदुभिः स्नेहसंयुक्तैभषजस्तं विशोधयेत् । आमाशयगत वायु में कर्तव्य ।
अर्थ-यदि उक्त कर्म से दोष की आधि- आमाशयगते बायो वमितप्रतिभोजिते । कता के कारण वातरोग प्रशमित न हो तो । सुखावुना षट्चरणं बचादि वाप्रयोजयेत् ॥ स्नेहयुक्त कोमल औषध अर्थात् अमलतासा
संधाक्षतेऽग्नौ परतो विधि केवलवातिक.।
मत्स्यान्नाभिप्रदेशस्थे .. दि द्वारा विरेचन देवै ।
सिद्धान्विल्पशलाटुभिः ॥ १५॥
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