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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ०११ www. kobatirth.org चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । रक्त कृमि की चिकित्सा | रक्तजानां प्रतीकारं कुर्यात्कुष्टविकित्सितात् । इंद्रलुप्तविधिश्चात्र विधेयोरोमभोजिषु ॥ अर्थ-रक्तजकृमिरोग में वह चिकित्सा करनी चाहिये, जो कुष्ठरोग में कही हुई है तथा रोमभोज कृमियों की चिकित्सा इन्द्रलुप्त में कही हुई चिकित्सा के अनुसार औषध का प्रयोग करना चाहिये । कृमिरोग में क्षीरादि निषेध । क्षीराणि मांसांनि घृतं गुडं च दधानि शाकानि च पर्णवंति । समासतो म्लान्मधुरान् रसाश्व कृमीन् जिहासुः परिवर्जयेच्च ॥ अर्थ - जो रोगी कृमिरोग से छुटकारा पाने की इच्छा करता है, उसे उचित है कि दूध, मांस, घी, गुड, दही, पत्ते के शाक, तथा खट्टे मीठे रसों को त्यागदेवे । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा'टीकान्वितायां चिकित्सितस्थाने श्वित्रकृमिचिकित्सितं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ एकविंशोऽध्यायः । अथाsतो बात व्याधिचिकित्सितं व्याख्या स्यामः ॥ अर्थ- अब हम यहां से वातव्याधिचि - कित्सित नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। बातव्याधि में स्नेहोपचार । (3 केवलं निरुपस्तंभमादौ स्त्ररुपाचरेत् वायुं सर्पिर्व समजलपानैर्नरं ततः ॥ १ ॥ ૮° Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३६५)) स्नेहाकांत समाश्वास्य पयोभिः स्नेह यत्पुनः यूपैर्ध म्यादकानूपरसैर्वा खेद सयुक्तैः ॥ २-५ पायसैः कृसरैः साम्ललवणैः सानुवासनैः । वातघ्नैस्तर्पणैश्वान्नैः सुस्निग्धैः स्नेहयेत्ततः॥ स्वभ्यक्तं स्नेहसंयुक्तैः शंकराद्यैः पुनः पुनः P 7 अर्थ-उपस्तंभ से रहित अर्थात् जिसमें कफपित्तादि के कारण किसी प्रकार की अवरुद्धता न हो ऐसी केवल वायुको स्नेहों द्वारा उपचारित करे । अर्थात् घी, मसा मज्जा और तेल इनका पान कराके रोगीको स्नेहित करे । पश्चात् स्नेहाक्रान्त वातव्याधि पीडित रोगी को दूध के प्रयोग से समाश्वासित करके फिर स्नेहन करे । इस काम के लिये स्नेहयुक्त मुद्गादियूष, माम्य, औदक और आनूप पशुपक्षियों का मांसरस, पायस, कृसरा ( खिचडी ), खटाई और नमक से युक्त वातनाशक अनुवासन, तर्पण, और सुस्निग्ध अन्नका बार बार प्रयोग करके तथा रोगी को अच्छी तरह से अभ्यक्त करके स्नेहसंयुक्त शंकरस्वेद द्वारा बार बार वेदित करे । 3 स्वेदन के गुण । स्नेहाक्तं स्विन्नमंग तु वक्रं स्तब्धं सवेदनम्, यथेष्टमानामयितुं सुखमेव हि शक्यते । अर्थ- वक्र, स्तब्ध और वेदनायुक्त अंग को स्नेह से चुपडकर स्वेदद्वारा स्विन्न करले तत्पश्चात् जैसी इच्छा हो वैसेही सुखपूर्वक अंगको नवाया जा सकता है । उक्तविषय पर दृष्टान्त | शुष्काण्यपि हि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः॥ शक्यं कर्मण्यतां नेतु किमु गात्राणि जीवताम् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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