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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० १९ www. kobatirth.org सूत्रस्थान भाषटीकासमेत । मात्रावस्ति के लक्षणादि । स्वया स्नेहपानस्य मात्रया योजितः समः ॥ मात्रास्तिः स्मृतः स्नेहः शीलनीयः सदाच सः । बालवृद्धाध्वभारस्त्रीव्यायामासक्तचिंतकैः ॥ वातभग्नबलाऽल्पाग्निनृपेश्वरसुखात्मभिःः । दोषघ्नो निष्परीहारो वल्यः सृष्टमलः सुखः ॥ अर्थ - अनुवासन वस्तिमें जो स्नेहमात्रा की योजना करने में आती है उसमें जो दो पहर में पच सकती है उसे वैद्य मात्रावस्ति कहते हैं । यह मात्रा वस्ति बालक, वृद्ध, मार्ग चलने से थके हुए, बोझ ढोने से क्लांत, स्त्रीसक्त, व्यायाम करने वाले, चिंताशील, वायुके वेग से जिसका बल नारा होगया हो, मन्दाग्नियुत, राजा, सुखभोगी इन मनुष्यों को सदा सेवन के योग्य है । इस मात्रावस्ति से त्रिदोष का नाश होता है परिहार बिना बल बढता है, पुरीषादि मल अच्छी तरह निकल कर सुख उत्पन्न करते हैं । उत्तरवस्तिका विधान | बस्ती रोगेषु नारीणां योनिगर्भाशयेषु च । द्वित्रास्थापन शुद्धेभ्यो विध्याद्वस्तिमुत्तरम् अर्थ - स्त्रियों के वस्ति स्थान के रोगों में, योनिरोगों में अथवा गर्भाशय संबंधी रोगों में दो तीन आस्थापन बस्तिओं के प्रयोग द्वारा शुद्ध करके उत्तर वस्तिका प्रयोग करना चाहिये | उत्तरवस्ति के नेत्र का परिमाण । आतुरंगुलमानेन तन्ने द्वादशांगुलम् | वृत्तं गोपुच्छवन्मूलमध्ययोः कृतकर्णिकम् ॥ सिद्धार्थकप्रवेशाल हेमादिसंभवम् । २३ ( १७७ ) दाश्वमार सुमनः पुष्पवृतोपमं दृढम् ७२ ॥ अर्थ-उत्तर वस्ति का नेत्र रोगी के बारह अंगुल के तुल्य होता है, यह सुवर्णादि धातुओं से बनाया जाता है इसका आकार गोल गौ की पूंछ के समान है इसकी जड़ में और मध्यभाग में कर्णिका लगी होती है। इसके अग्रभाग में ऐसा छिद्र होता है जिस में सरसों प्रवेश कर सके, चिकना होता है तथा कुन्द, कनेर और चमेली के पुष्प और वृक्ष के समान होता है, तथा दृढ भी हो - ना चाहिये | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तर वस्तिकी मात्रा | तस्य वस्तिर्मृदुलघुर्मात्रा शुक्तिर्विकल्प्य वा । अर्थ - इस वस्ति की योजना मृदु और लघु करना उचित है, उत्तर वस्ति की स्नेह मात्रा चार तोळे होती हैं अथवा रोगी के वय, बल और शरीरादि की विवेचना कर के स्नेह मात्रा की कल्पना करना उचित है। उत्तरवस्तिके प्रयोग की विधि अथ स्नाताशितस्यास्य स्नेहवस्तिविधानतः ऋजोः सुखोपविष्टस्य पीठे जानुसमे मृदी । हृष्टं मेवे स्थितच जौ शनैः स्रोतोविशुद्धये ॥ सूक्ष्मांशला कां प्रणयेत्तया शुद्धेऽनु सेवनीम् । आदतं नेत्रं च निष्कंप गुदवत्ततः ७५ ॥ पीडितेंतर्गत स्नेहे स्नेहवस्तिक्रमो हितः । अर्थ - ऊपर कही हुई स्नेह वास्त की रीति के अनुसार रोगी को स्नान और भोजन से निवृत होचुकने पर जानुतुल्य ऊंचे कोमल आसन पर सीधा सुखपूर्वक बैठा, फिर स्रोतों की विशुद्धिके लिये प्रथम लिंग को सीधा करके इस तरह रक्खे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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