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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७१) - अष्टांगहृदये । अ० १९ अर्थ-कितने ही वैद्यों का यह मत है | योगोऽष्टौ बस्तयोऽत्रतु ॥ ६४ ॥ त्रयो निरूहाः स्नेहाश्च स्नेहावाद्यंतयोरुभौ। कि बस्तिओं के तीन काम हैं एक उत्क्लेशन | अर्थ-पन्द्रह वस्तिओं के प्रयोग का नाअर्थात् दोषों को अपने स्थान से चलायमान म काल है प्रथम एक और अंत में तीन कर देना, दूसराः दोषों की शुद्धिः करना, स्नेह वस्ति और पांच निरूहबस्ति द्वारा तीसरा उनका, शमन करना । इन तीनों अंतरित छः स्नेह बस्ति । इस तरह पन्द्रह कामों को एक एक वस्ति कर देती है, वस्ति के प्रयोग का नाम काल है । इसलिये तीनसे अधिक बस्तिओं के देने ___ तीन निरूहण वस्ति और तीन अनुवाका कुछ प्रयोजन नहीं है। सन वस्ति तथा प्रथम और अंत में एकएक उभय पक्ष में प्रमाणत्व । स्नेहवस्ति । इस तरह इन आठ वस्तिओंका दोषौषधादिबलतः सर्वमेतत्प्रमाणयेत् ।। नाम योग है । __ अर्थ-इन वस्तिओं में दोष, औषध एकप्रकारकीवस्तिओंकसेवनकाप्रयोग। और साम्यादि से ये सब बातें प्रमाण के मेहबस्ति निरूहं वानैकमेवाऽतिशीलयेत्॥ योग्यहैं, अर्थात् दोनों पक्षों का दोषों पर उत्क्लेशाग्निवधौनेहानिरूहान्मरुतो भयम् ____ अर्थ-केवल स्नेह वस्ति वा केवल नि. ग्रन्थकारका मत । रूह वास्त इनमें से किसी एक प्रकार को सम्यनिरूढलिंगंतु नाऽसंभाव्य निवर्तयेत्। वस्ति का अतिशय सेबन न करना चाहिये। अर्थ-जब तक अच्छी तरह निरूहण | क्योंकि स्नेहवास्तिओं के अतिशय सेवन से देने के लक्षण दिखाई न दें ता तक वस्ति उत्क्लेश होता है अर्थात् वातादि दोष अपने देना उचित है, तीन वस्ति देकर ही बन्द अपने स्थान से चलायमान होकर बाहर न कर देना चाहिये । यह ग्रन्यकार का निकलने को प्रवृत्त होते हैं, तथा जठराग्नि मत है। भी मन्द पडजाती है और निरूहण के .. कर्मवस्तिओं की संख्या। | अत्यन्त सेवन से वायुका प्रकोप होता है । प्राक्नेहएकापंचांतेद्वादशाऽऽस्थापनानि च | उपसहार। सान्वासनानि कमैवं बस्तयस्त्रिशदीरिताः॥ तस्मानिरूढः स्नेह्यः स्यान्निरूपश्चाऽनुवा अर्थ-कर्म बस्ति तीस हैं प्रथम एक स्नेह वस्ति, अंत में अर्थात् पंचकर्मके अवसानेमें | स्नेहशोधनयुत्तथैवं बस्तिकर्म त्रिदोषजित् । पांच वस्ति,बारह निरूहणवस्ति बारह अनुवा ___ अर्थ-इसलिये प्रथम निरूहण वस्ति सन बस्तिइस तरह कर्मबस्ती तीस होती हैं । देकर स्नेहन वस्ति देवै और अनुवासन कालवस्ति तथा योगबस्ति । देकर निरूहण देवै । इसतरह स्नेहन और कालः पंचदशैकोऽत्रप्राक् स्नेहांते त्रयस्तथा शोधनयुक्तियों के द्वारा वस्ति कर्म होने पर षट्पंचवस्त्यंतरिता | वातादिक तीनों दोष शांत होजाते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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