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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० १० चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । [५७९ ] घृत का प्रयोग। अर्थ-उक्त पंचकोलादि द्रव्यांका चूर्ण पंचमूलाभयाव्योषपिप्पलीमूलसैंधवैः। । सुहाते हुए गरम जलके साथ फांफने पर कराधाक्षीरदयाजाजीविंडंगशठिभितम् ॥ शुक्छेन मातुलिंगस्य स्वरसेनाकस्य वा। फावृत वायु, आमदोषान्वित वा वाताधिक्य शुकमुलककोलाम्लचुक्रिकादाडिमस्य च ॥ कफ शांत होजाते हैं। तक्रमस्तुसुरामंडसौवीरकतुषोदकैः। पित्तजग्रहणी की चिकित्सा। कांजिकेन च तत्पकमाग्निदीप्तिकरं परम् ॥ | भने निर्वापकं पित्तं रेकेण वमनेन वा ।३२॥ शूलगुल्मोदरश्वासकासानिलकफापहम् । हत्वा तिक्तलघुग्राहिदीपनैरविदाहिभिः । अर्य-पंचकोल, हरड, त्रिकुटा, पीपला- अम्लैः संधुक्षयेदग्निं चूर्णैः स्नेहश्च तिक्तकैः। मूल, सेंधानमक, रास्ना, दोनोंक्षार ( किसी । अर्थ-पतला होनेकी अधिकता से पित्त किसी पुस्तक में क्षारकी जगह क्षीर पाठ अग्निको बुझादेता है, इसलिये पित्तको वमन करके गौ और बकरी का दूध ग्रहण किया वा विरेचन द्वारा निकालकर तिक्त, लघु,प्राहै ) जीरा, बायबिडंग, कचूर, इन सब ही, अग्निसंदीपन और अविदाही तथा अम्ल द्रव्यों को पीसले, तथा विजौरे और अदरख द्रव्योंके चूर्ण और तिक्त द्रव्योंके स्नेहसे भ. का रस, सूखीमूली, बेर, चूका, और अनार ग्नि को प्रवल करनेका यत्न करै । इनका काढा, तथा तक मस्तु, सुरा, मंड, पित्तजग्रहणी पर चूर्ण । सौपीर, तुषोदक और कांजी इन सब द्रव्यों पटोलनिवत्रायतीतितातिक्तकपर्पटम् । | कुटजत्वक्फलं मूर्वामधुशिग्रुफलं वचा ॥ से सिद्ध किया हुआ घी अत्यंत अग्निसंदीपन दात्विक्पद्मकोशीरयवानीमुस्तचंदनम् । है, यह शूल, गुल्म, उदररोग, श्वास,खांसी सौराष्ट्रयतिविषाव्योषत्वगेलापनदारु च। और वातकफको दूर करदेता है । | चूणितं मधुना लेह्यं पेयं मद्यैर्जलेन वा। अन्य घृत। हृत्पांडुग्रहणीरोगगुल्मशूलारुचिज्वरान् ॥ सवी जपूरकरसे सिद्धं वा पाययेघृतम् ॥ | कामलां सन्निपातं च मुखरोगांश्च नाशयेत् । अर्थ-विजौरे के रसमें सिद्ध किया हुआ ___ अर्थ-पर्वल,नौम, त्रायंती, कुटकी, चिधृत पान कराना चाहिये । रायता, पित्तपापडा, कुडाकी छाल, इद्रन्जौ, अभ्यंग के लिये तेल । मूर्वा, मिष्ट सहजने के बीज, बच, दारुहलदी तैलमभ्यंजनार्थ व सिद्धमेभिश्चलापहम् । की छाल, पद्माख, खस, अजवायन, मोथा, मर्थ-उक्त पंचकोलादि द्रव्यों से सिद्ध चंदन, सौराष्ट्रमृत्तिका, अतीस, त्रिकुटा, दाकिया हुआ तेल अभ्यंग में काम आता है। चीनी, इलायची,तेजपात और देवदारु इन इसके लगाने से ग्रहण रोग नष्ट होजाता है । सब द्रव्योंका चूर्ण मधु,मद्य, वा जलके साउक्तद्रव्यों का चूर्ण। थ पान करै तो हृदयरोग, पांडुरोग, ग्रहणीएतेषामौषधानां वा पिवेञ्चर्ण सुखांबना ॥ रोग, गुल्म, शूल, अरुचि, ज्वर, कामला, वातेश्लेमावृते सामे कफे या वायुनोखते। | सन्निपात और मुखरोग जाते रहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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