SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८०) अष्टांगहृदय । अ०१० अन्य चूर्ण । और नीम प्रत्येक दो दो पल इनको एक द्रोभूनिवकटुकामुस्ताञ्चूषणेद्रयवान् समान् ॥ ण जलमें पकावे, चौथाई शेष रहनेपर छान द्वौ चित्रकाद्वत्सकत्वग्भागान् षोडश चूर्णयेत् कर इस क्वाथमें एक प्रस्थ घी तथा चिरायता, गुडशीतांबुना पीतं ग्रहणीदोषगुल्मनुत् ॥ कामलाज्वरपांडुत्वमेहारुच्यतिसारजित् ।। इन्द्रजौ, क्षीर काकोली, पीपल, उत्पल इनका - अर्थ-चिरायता, कुटकी, मोथा, त्रिकुटा, | कल्क डालकर पकावै, इस घीको पित्तजग्रहऔर इन्द्रजौ प्रत्येक एक एक भाग, चीता दो णी में पान करना चाहिये, तथा कुष्टचिकिभाग, कुडाकी छाल १६ भाग, इन सबका सितमें कहा हुआ तिक्तघृत और महातिक्तघृत चूर्ण बनाकर गुडके ठंडे शतके साथ पीने का भी इस रोगमें प्रयोग किया जाता है। से ग्रहणीरोग, गुल्मरोग, कामला, ज्वर, पांडु, कफजग्रहणी में चिकित्सा। प्रमेह, अरुचि और अतिसार जाते रहते हैं। ग्रहण्यां श्लेष्मदुष्टायां तीक्ष्णैः प्रच्छर्दने कृते कट्वम्ललवणक्षारैः क्रमादाग्नं विवर्धयेत् ॥ नागरादि चूर्ण । नागरातिविषामुस्तापाटविल्वं रसांजनम् ॥ ___ अर्थ-कफसे दूषित ग्रहणी रोगमें प्रथम कुटजत्वक्फलं तिक्ता धातकी च कृतं रजः। तक्षिण द्रव्योंसे बमन कराके, कटु, अम्ल, क्षौद्रतडुलबारिभ्यां पैत्तिक्त ग्रहणीगदे ॥ लवण और क्षार द्रव्यों द्वारा क्रमसे जठराग्नि प्रवाहिकाशॆगुदरुग्रतोत्थानेषु चेष्यते।। का प्रवल करनेका यत्न करें । अर्थ-सोंठ, अतीस, मोथा, पाठा, बेल- कफजग्रहणी में पेया । गिरी, रसौत, कुडाकी छाल, इन्द्रजौ, कुटकी, पंचकोलाभयाधान्यपाठागंधपलाशकैः। , और धायके फूल शहत और चांवलोंके जल बीजपूरप्रवालैश्च सिद्धैः पेयादि कल्पयेत् ॥ के साथ फांकने से पित्तज ग्रहणी, प्रवाहिका अर्थ-पंचकोल, हरह, धनियां पाठा, गंधपत्र अर्श,गुदशूल,और रक्तजविकार शांत होजातेहैं और बिजारे के अंकुरोंसे सिद्ध की हुई पेया ... चंदनादि घृत ।। कफजग्रहणी में सेवन करना चाहिये । चंदनं पद्मकोशीरं पाठां मूर्वी फुटंनटम् ॥ कफजमहणी में आसव । षग्रंथासारिवाऽस्फोतासप्तपर्णाटरूषकान् । द्रोण मधुकपुष्पाणां विडंग च ततोऽर्धतः । पटोलोदुंबराश्वत्थवटप्लक्षकपतिनम् ॥ | चित्रकस्य ततोऽर्धच तथा भल्लातकाढकम् कटुका रोहिणी मुस्तां निवं च- . मंजिष्ठाऽष्टपलं चैतज्जलद्रोणत्रये पचेत् । . द्विपलांशकान् । द्रोणशेष शृतं शीतं मध्वर्धाढकसंयुतम् ॥ द्रोणेऽपां साधयेत्तेन पचेत्सर्पिः पिचून्मितः एलामृणालगुरुभिश्चंदनेन च रूक्षिते । किराततिक्तेंद्रयववीरामागधिकोत्पलैः।। कुंभे मास स्थित जातमासवं तं प्रयोजयेत् पित्तग्रहण्यां तत्पेयं कुष्ठोक्तं तितकं च यत् ॥ ग्रहणी दीपयत्येष बृंहणः पित्तरक्तनुत् । - अर्थ-रक्तचंदन, पदमाख, खस, पाठा' । शोषकुष्ठकिलासानां प्रमेहाणां च नाशनः ॥ मूर्वा, श्यौनाक, बच, सारिबा, श्यामालता, स- ____ अर्थ-महुआ के फूल एक द्रोण बायबिप्तपर्णी, अडूसा, पर्वल, गूलर, पीपल, वट, डंग आधा द्रोण, चीता चौथाई द्रोण, मि., पाकर, वेत, कुटकी, हरीतकी , मोथा | लावा एक आढक, मजीठ आठ पल इन For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy