SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 675
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७८) अष्टांगहृदय । अ.१० प्रसेकपीनसश्वासकासानां च निवृत्तये ॥ । किंचित्संधुक्षिते त्वग्नौ सकविण्मूत्रमारुतम् । अभयां नागरस्थाने दद्यादत्रैव विडूग्रहे। यहं त्र्यहं वासनेह्य स्विन्नाभ्यक्तं निरूहयेत् छादिषु च पैत्तेषु चतुर्गुणसितान्विताः॥ तत एरंडतैलेन सर्पिषा तैल्वकेन बा । पक्केन वटकाः कार्या गुडेन सितयाऽपि वा | सक्षारेणाऽनिले शांतेस्रस्तदोषं विरेचयेत् ।। परं हि वह्निसंपर्काल्लधिमानं भजति ते ॥ अर्थ-ग्रहणीरोग में आमावस्था की चि. अर्थ-तालीसपत्र, चव्य और काली- कित्सा ऊपर कह चुके हैं, अब निरामावस्था मिरच प्रत्येक एक एक पल, पीपल और । की चिकित्सा कहते हैं। पीपलामूल प्रत्येक दो पल, सोंठ तीनपल, ___ वातज ग्रहणीरोग में आमदोष का परिचातुर्जात और खस प्रत्येक एक कर्ष । इन | पाक होने पर पंचकोलादि अग्निसंदीपन औसबको वारीक पीसकर कपडछन करले, षधों से सिद्ध किया हुआ घी थोडा थोडा फिर इसमें सबसे तिगुना गुड मिलाकर देना चाहिये । इस तरह अग्नि के किंचिन्मागोलियां बनालेधै । इन गोलियों को सेबन | त्र बढने पर भी जो विष्टा, मूत्र और अधोफरके मद्य, यूष, मांसरस, अरिष्ट, मस्तु, | वायु में रुकावट हो तो दो तीन दिन तक वायु में रुकावट हो ता दाता पेया और दूधका अनुपान करे । इन गो- स्नेहन करके फिर स्नेहस्वेद देकर निरूहण लियों से वातकफाधिक्यवाले रोगियों के | वस्ति देना चाहिये । तदनंतर वायुके शांत घमन, प्रहणी, पसलीका दर्द, हृदयका दर्द होने पर अरंड के तेल से अथवा क्षारमिश्रित ज्वर, सूजन, पांडुरोग, गुल्म, मदात्यय, | तैस्वक घृत से प्रच्युत दोष का विरेचन अर्श, प्रसेक, पीनस, श्वास, और खांसी । | करै । दूर होजाते हैं। अनुवासन प्रयोग । __ यदि ऊपर के लिख रोगों में मलकी शुद्धलक्षाशयं बद्धवर्चस्कं चाऽनुवासयेत् । विवद्धता हो तो सोंठ की जगह हरड़ डा | दीपनीयाम्लवातघ्न सिद्धतैलेन तं ततः॥ निरूढं च विरिक्तंचलना चाहिये । यदि उक्त रोगों में वातक सम्यक्चाऽप्यनुवासितम फाधिक्य की जगह पित्ताधिक्य हो तो गोली लघ्वन्नप्रतिसंयुक्तं सर्पिरभ्यासयेत्पुनः ॥ बनाने में गुड न डालकर चौगुनी मिश्री । अर्थ-ग्रहणीरोग में विरचनादि द्वारा डालकर गोली बना लेवै । प्रथम गुड वा कोष्ठ शुद्ध और रूक्ष होजाता है, तथा कोष्ठ चीनी को आग्नि में पकाकर अर्थात् चाशनी के शुद्ध और रूक्ष होने पर मल में विवद्धता करके फिर इसमें उक्त द्रव्यों का चूर्ण मिला होती है इसलिये ऐसे रोगी को दीपनीय कर गोलियां बना लेवै । ये गोलियां अनि शंठयादि, बृक्षाम्लादि और वातनाशक कठ के संपर्क से अत्यंत हलकी होजाती है । । रास्नादि से सिद्ध किये हुए तेल द्वारा अनुवावातग्रहणीरोग की चिकित्सा। सन देवै । इस तरह निरूहण, विरेचन और अथैन परिपक्काममारुतग्रहणीगदम्। | अनुवासन कर्मके पीछे उसको हलके अन दीपनीययुतं सर्पिः पाययेदल्पयो भिषक् ॥ | का भोजन कराके घी का अभ्यास करावै । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy