________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अ० १३
सूत्रस्थान भाषाटीकासमंत ।
(१२५)
वात कफ के संसर्ग में क्रमशः प्रीष्म और वही है जो एक रोगको शान्त करके दूसरों वसंत में कहा हुआ विधान काम में आस- को न तो बढाथै, न पैदा करै । कता है इस शंका का यह समाधानहै कि शाखाओं में दोषोंका आना जाना । पवन गवाही होता है अर्थात् जिस दोप व्यायामादृष्मणस्तैक्ष्ण्यादहिताचरणादपि। से मिल जाता है उसी दोष का कार्य करने
कोष्ठाच्छाखास्थिमर्माणिद्रुतत्वान्मारुतस्य च
दोषायांति तथातेभ्यःमोतोमुखविशोधनात लगता है । इस लिये पित्तयुक्त वायु की
बृद्धाभियंदनात्पाकाकोष्टवयोश्च निग्रहात् पित्त चिकित्सा और कफयुक्त वायु की कफ
___ अर्थ- कोष्ट अर्थात् उदर से दोप निचिकित्सा न्यायसंगत है सन्निपात में "भ
कलकर हाथ पांव आदि शरीर के अवयव नेत्साधारणं सर्वे'' इस वचन के अनुसार वर्षा अस्थि और मर्मस्थानमें जातहैं, इसके चार ऋतुचर्या में कहा हुआ उपचारकरै, क्यों
हेतुहैं ( १ ) व्यायाम कसरत करनेके श्रम कि शास्त्र में कहा है कि वर्षा ऋतु में तीनों से वायु ऊपर को चढताहै और कसरत से दोष प्रकुपित होते हैं।
पैदा हुए क्षोभ, श्रम और गरमी के कारण उपचार का काल । शिथिल और चलायमान दोष कोष्ठ से अबचय एव जयेद्दो कुपितं त्वविरोधयन् । यव, अस्थि और मर्मस्थानमें चले जातेहैं । सर्वकोषे बलीयांस शेषदोषविराधतः १५॥ ___ अर्थ- जिस कालमें वातादिक दोषोंका
( २ ) गरमी- तीक्ष्ण उष्णताके कारण संचय होताहै उसी समय टोपोंके जीतनेका
दोष पिघल कर, गरमीके कारण खुलेहुऐ, उपाय करै, परन्तु दोषोंके प्रकुपित होनेकी
स्रोतोंके मुवमें होकर शाखाओं में घुस जाते प्रतीक्षा न करै । संचयकालमें ही दोपों
। हैं । ( ३ ) अहित सेवन-अहित पदार्थोके की शुद्धि हाजाने से वे फिर कुपितही नहीं
सेवन से दोष अपने प्रमाण से बढकर होन पाते । दो दोष मिलकर कुपित हों तो
शाखादिमें जातेहैं जैसे वर्षा ऋतुमें जल अऐसी चिकित्सा करै जो दोनों में से किसी पने जलाशय में न समाकर अन्यत्र बहने के विरोधी न हो | तीनों दोषों के कुपित लगताहै | ( 8 ) वायुका शीघ्र गमन- वाहोनेपर बलवान की चिकित्सा करै, पर वह
युके शीघ्रगामी होने के कारण दोष उसके चिकित्सा शेष दो दो घाँकी विरोधी न हो । | साथ साथ कोष्ठसे अस्थिआदिमें चले जाते हैं विरोधी चिकित्मा न करने का कारण । शाखास्थि और मर्मस्थानमें गये हुऐ दोष, प्रयोगः शमयेद्व्याधि योऽन्यमन्यमुदीरयेत्। जब दोषवाही नलियों के मुख शुद्ध होजाते हैं नाऽसौविशुद्धाशुद्धस्तु शमयेद्योन कोपयेत् तब कोष्ठमें पीछे चले जातेहैं । इसके भी . अर्थ-जिस चिकित्सा से एक व्याधि | चार कारण हैं- शाखों में गए हुए दोष शान्त होकर दूसरी खडी होजाय वह चिकि वहां न समाने के कारण, कफ उत्पन्न कसा विशुद्ध नहीं होतीहै । विशुद्ध चिकित्सा रनेवाले पदार्थोंके सेवनसे, पाचनादि औष
For Private And Personal Use Only