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(१२६)
अष्टांगहृदये।
धियोंसे दोषोंका पाक होजानसे, तथा वायु अथवा प्रथम स्थानी दोष का शमन करके का निग्रह करनेसे दोष शाखास्थि और मर्म फिर आगन्तु दोष का शमन करै । स्थानसे कोष्ठमें वापिस आजातेहैं ।
तिर्यक स्थानगत दोष । कोष्ठमें दोषोंका कर्म ।
प्रायस्तिर्यग्गतादोषाःक्लेशयंत्यातुरांश्चिरम् तत्रस्थाश्च विलम्बरेन् भूयो हेतुप्रतीक्षिणः । अया
कुर्यान्न तेषुत्वरया देहाग्निवलपिक्रियाम् ।
शमयेत्तान्प्रयोगेण सुखं वा कोष्ठमानयेत् ।। __ अर्थ- दोष कोष्ठमें जाकर रोगादि की
ज्ञात्वा कोष्टप्रपन्नांश्च यथाऽसन्नं विनिहरेत् उत्पत्ति नहीं कर सकतेहैं क्योंकि दूसरे अर्थ-शरीरस्थ दोष जब तिय्यक स्थान स्थानमें जाकर निर्बल और शक्तिहीन हो में चले जाते हैं तब रोगी को बहुत काल जाते हैं और कुपित करनेवाले अन्य हेतुओं तक कष्ट पहुंचाते है, इस लिये वैद्य को की प्रतीक्षा करते रहतेहैं।
उचित है कि ऐसे दोष की चिकित्सा करने दोषोंके कुपित होने का कारण ।
में शीघ्रता न करै । शास्त्रोक्त चिकित्सा के ते कालादिवलं लब्ध्वा कुष्यत्यप्याश्रयेष्वपि
अनुसार तिय्यर्गत दोषों की शान्ति करै __ अर्थ- वही दोष काल, देश, दूष्य, प्र
अथवा जिस उपाय से देह में पीडा न होवै कृति, अपथ्य आदि समान गुणवाले हेतुओं
उससे उन दोषों को शनैः शनैः कोष्ठ में से बल प्राप्त करके कोष्ठस्थ दोष शाखास्थि
लावै । जब वे कोष्ठ में आजाय तब जो मार्ग मर्मस्थानों में और शाखास्थिमर्माश्रितदोष ।
उनके पास हो उसी के द्वारा उनके बाहर कोष्ठमें रोग उत्पन्न करते हैं।
निकालने का प्रयत्नकरै । जैसे जो गुदा परस्थानगत दोष की चिकित्सा ।।
निकट हो तो विरेचन देवै, मुख निकट हो तत्राऽन्यस्थान संस्थेषु तदीयामवलेषु च ।
हो वमन करावे, नासिका निकट हो तो कुर्याञ्चिभित्लां स्वामेवरलेनान्यासिमाविषु आगंतुं शमयेहोष स्थानिनं प्रतिकृत्य वा ।
नस्यकर्म करै, इत्यादि । आमस्थान, आग्नअर्थ-अन्यस्थानगत संपूर्ण दोष जबतक
पकाशय, मूत्राशय, रक्ताधार, हृदय, मलाशय निर्वल रहते है तबतक किसी प्रकार का
और फुसफुस इनको कोष्ट कहते हैं। रोग उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते हैं
साम तथा निराम मल के लक्षण । उनकी निज चिकित्सा न करके केवल |
स्रोतोरोधदलभ्रंशगौरवानिलमूढताः २३ ॥
आलत्यापक्तिनिष्टीवमलसंगारुचिक्लमाः । स्थानी दोष के संबधकी चिकित्सा करनी चा- लिंगं मलानां सामानां निरामाणां विपर्ययः हिये । लेकिन जब परस्थानगत दोष बल- | वान होकर अपनी शक्ति के द्वारा स्थानी
क्षपक । दोष का पराभव करके स्थित होजाय ।
विण्मूत्रनखदंतत्वक्चक्षुषां पतिता भवेत् ।
रक्तत्वमतिकृष्णत्वं पृष्ठास्थिकाटिसंधिरुक् ॥ तब स्थान संबंधी दोष की चिकित्सा न । शिरोरुक जायते तीनानिद्रा बिरसता मुखे। करके बलवान दोष की चिकित्सा करै । क्वचिच्च श्वयथुर्गा ज्वरोऽतीसारहर्षणम् ॥
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