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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (९०७) त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः। उपदेश के भेद । --0:(4): ___ उपदंशोऽत्र पंचधा। अथाऽतो गुह्मरोगविज्ञान व्याख्यास्यामः। प्रथा पृथग्दोषैः सरुधिरैः समस्तश्च अर्थ-अब हम यहां से गुह्यरोगविज्ञान __ अर्थ-उपदंशरोग पांच प्रकार के होतेहैं, नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे। यथा-वातज, पित्तज, कफज, रक्तज और उपदंशादितेईस रोग । त्रिदोषज | स्त्रीव्यवायनिवृत्तस्य सहसा भजसोऽथवा। वातजउपदंश के लक्षण । दोषाध्युषितसंकीर्णमीलनानुरजः पथाम् ॥ अत्र मारुतान् ॥ ५॥ अन्ययोनिमनिच्छंतीमगम्यां नवसूतिकाम् । मेदशोफेरुजश्चित्राः स्तंभस्त्वक्परिपोटनम् दूषितं स्पृशतस्तोयं रतांतेष्वपि नैब वा ॥ | अर्थ-वातजउपदंश में मेढ़ में सूजन, विवर्धयिषया तक्षिणान् प्रपादीन् प्रयच्छतः अनेक प्रकार की वेदना,स्तब्धता और त्वचा मुष्टिदतनखोत्पीडाविषवच्छुपातनैः॥ गमिग्रहदीर्घातिखरस्पर्शविघट्टनैः। का फटना ये लक्षण होते हैं। दोषा दुष्टा गता गुह्यं त्रयोविंशतिमामयान् पित्तजउपदंश । जनयंत्युपदशादीन् | पक्कोद्वरसंकाशः पित्तेन श्वयथुवरः॥ अर्थ-एक साथ मैथुन करते करते हट अर्थ-पित्तजउपदंश में पके हुए गूलर जाना,अथवा सहसा मैथुनमें प्रवृत्त होजाना, के समान लालवर्ण,सूजन और ज्वर होताहै। अथवा जिसस्त्री की योनि वातादि दोषों से कफजउपदंश । दूषित, तंग, मलीन वा सूक्ष्ममार्गवाली स्त्री लक्ष्मणाकठिनास्निग्धाकंडूमान्शीतलोगुरुः के साथ गमनकरना,बकंभिंस आदि अन्ययोनि । अर्थ--कफजउपदंश में कठोरता, चिकमें गमन करना, संगमकी इच्छा न रखमे | नाई, खुजली, शीतलता और भारापन पाली स्त्रीके साथ गमन करना, अंगम्या | स्त्रीके साथ गमन करना, नवप्रसूता (हाल होता है। की जनी ) स्त्रीके साथ गमन करना,रतांत रक्तजउपदंश । में दूषित जलसे गुह्येन्द्रिय प्रक्षालन वा | शोणितनासितस्फोटसंभवोऽनमुतिवरः॥ सर्वथा अप्रक्षालन, अथवा गुह्येन्द्रिय को अर्थ-रक्तज उपदंश में काली काली बढाने के निमित्त तीक्ष्ण प्रलेपादि करना, कुंसियों की उत्पत्ति, रक्तस्राव और ज्वर कामोन्मत्ता स्त्रीके मुष्टि, दांत, वा नख द्वारा होता है। लिंग का आहत करना, विषयत् वीर्यपतन. वीर्यका धेग रोकना, दीर्घ और अत्यन्त | त्रिदोषज उपदंश। खरस्पर्शवाली योनि से बहुत कालतक गुह्ये- सर्वजे सींलगत्वं श्वयथुर्मुष्कयोरपि । न्द्रियघर्षण, इत्यादि वातों से वातादिदोष | तीवा रुगाशुपचनं दणं कृमिसभवः॥ . प्रकुपित होकर उपदंशादितेईस प्रकारके रोगों | अर्थ-त्रिदोषज उपदंश में तीनों क्षेषों. को उत्पन्न करदेते हैं। के मिले हुए लक्षण पाये जाते हैं, तथा अंज For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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