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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९०८) अष्टांगहृदय । अ.. ३३ कोष में सूजन, तीव्र वेदना, आशुपाक, अवमंथ के लक्षण । फटने और क्रिमियों की उत्पत्ति ये लक्षण पिटिका बहवो दीर्घा दीयते मध्यतश्च याः॥ होते हैं। सोऽवमंथः कफासुग्भ्यां वेदनारोमहर्षवान् । उपदंश में साध्यासाध्यता । अर्थ-दीर्घ आकार वाली बहुत सी ऐसी याप्यो रक्तोद्भवस्तषां सत्यवे सन्निपातजः।फुसियां पैदा होजाती है, जो बीचमें फट अर्थ-इनमें से रक्तजउपदंश याप्य और जाती है, ये कफ और रक्तसे पैदा होती है, त्रिदोषज उपदंश असाध्य होता है। इनमें वेदना और रोमहर्ष होता है । इन्हें मांसकीलक का वर्णन ! अवमंथ कहते हैं। आयते कुपितैर्दोषैर्गुह्यामृतपिशिताश्रयैः ॥ कुंभीका पिटिका। अंतर्वहिर्वा मेदस्य कंडूला मांसकोलकाः।। कुंभीका रक्तपित्तोत्थाजांववस्थिनिभाऽशुभा पिच्छिलास्रस्रबायोनौ तच छत्रसान्निभाः । ___अर्थ-रक्तपित्त से उत्पन्न हुई फुसियां तेर्मास्युपेक्षया मति मेद्रपुंस्त्वभगार्तवम् । जो जामन की गुठली के सदृश पैदा होती है अर्थ-कुपित हुए बातादि दोष स्त्री वा उन्हें कुंभीका कहते हैं । ये बहुत जल्दी पुरुष की गुह्येन्द्रिय के मांस वा रक्तके आ- पैदा होजाती है। श्रित होकर मेढ़के बाहर वा भीतर मांसके अलजी के लक्षण । अंकुर उत्पन्न करदेते हैं इनमें बडी खुजली | अलजी मेहवविद्या चलती है और पिच्छिल रक्तका स्राव होताहै अर्थ-जैसी अल जी नामक पिटिका प्रमेह योनि में उत्पन्न होकर ये छत्राकार होजाते हैं में होती है, वैसी ही इसमें भी होती है। इन दोनों प्रकार की चर्मकीलकों को लिं उत्तमपिटिका। गार्श कहते हैं । इनकी चिकित्सा में उपेक्षा उत्तमा रक्तपित्तजाम् । करने से ये पुरुष के पुंस्त्व को और स्त्रीके पिटिकां माषमुन्नाभा रजको नाश करदेते हैं। ___ अर्थ--रक्तपित्त के प्रकोप से जो उरद का मूंगके समान कुंसियां गुह्यस्थान में होती सर्षपिका पिटिका । हैं उन्हें उत्तमा कहते हैं। गुह्यस्य वहिरंतर्वा पिटिकाः कफरक्तजाः ।। सर्वपामामसंस्थाना धनाःसर्षपिकाः स्मृताः। पुष्करिका के लक्षण । अर्थ-गुह्यस्थान के भीतर वा बाहर कफ-कणिका पुष्करस्येव क्षेया पुष्करिकेति सा। पिटिका पिटिकाचिता ॥ १४ ॥ रक्तसे ऐसी छोटी छोटी कुंसियां पैदा होजा- अर्थ--जो फुसी और बहुतसी फुसियों ती है जो आकार और परिमाण में सरसों से व्याप्त होती है, तथा जो कमल के बीज के समान और कठोर होती है, इन्हें सर्षपका कोषके आकार वाली होती है, उन्हें पुष्करका कहते हैं। | कहते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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