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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ० ३३ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । - संब्यूढ पिटिका ॥ निरुद्धमणि रोग ॥ पाणिभ्यां भृशसंव्यूढे संन्यूढपिटिका भवेत् वातेन दषितं धर्म मणौ सक्तं रुणद्धि चेत् ॥ अर्थ-हाथ के द्वारा अत्यन्त रिगडने से | स्रोतोमूत्र ततोभ्येति मंदधारमवेदनम् । जो फुन्सियां होजाती है। उन्हें सव्यूढ मणेविकाशरोधश्च सनिरुद्धमणिर्गदः ॥ पिटिका कहते हैं। ___ अर्थ-वायुके कारण पुरुष की जननेद्रिय मृदित के लक्षण ॥ का चमडा दूषित होकर लिंगमणि से चिपट मृदितं मृदित वस्त्रसंरब्धं वातकोपतः। कर मूत्र के मार्ग को रोकदे और इससे मूत्र अर्थ-लिंग का मर्दन करने से वा वस्त्र की धार बहुत धीरे धीरे निकले, परन्तु से घिसनेसे वायु के प्रकोप से मृदित नामक वेदना न होती हो, चर्मावरुद्ध होने के. रोग होता है। कारण मणिका मुख न खुलसके तव ऐसी अष्ठीलका के लक्षण ॥ व्याधि को रुद्धमाण कहते हैं। विषमा कठिनाभुग्नावायुनाऽष्ठीलिकास्मृता ग्रथिताख्य रोग । ___ अर्थ-वायु के प्रकोप से जो फंसियां लिंगं शूकैरिवापूर्ण प्रथिताख्यं कफोद्भयम विषम ( ऊँची नीची ) कठोर और टेढी ___ अर्थ-जिस रोग में पुरुष की गुप्तन्द्रिय होती है। उन्हें अष्टीलिका कहते हैं। यवशूक ( जो के कांटे ) की तरह व्याप्त निवृत्तसंज्ञक रोग ॥ होजाय उसे प्रथित कहते हैं। बिमर्दनादिदुष्टेन वायुना चर्ममेट्रजम् स्पर्शहानि रोग। निबतत सरुग्दाह क्वचित्पाकंच गति शूकदूषितरक्तात्था स्पशहानिस्तदाया। पिंडितं ग्रंथितं चर्म तत्प्रलंवमधोमणेः ।। । अर्थ-शूक से दूषित होकर रक्त लिंग निवृत्तसंशं सकर्फ कण्डकाठिन्यवत्त तत् ॥ | में स्पर्शहानि नामक रोगको उत्पन्न करता ___ अर्थ - मर्दन करने से दूषित हुआ वायु है, इसके होने से लिंग में छूने का अनुभव मेढू की त्वचा को उलट देताहै, इसमें वेदना | नहीं होता है। और दाह होने लगता है, तथा कभी कभी शतपोनकके लक्षण । पकाव भी होजाता है, यह चमडा लिंगमणि छिद्रेरणुमुखैर्यस्तु मेहनं सर्वतश्चितम् । . वातशोणितकोपेन तं विद्याच्छत्तपोनकम् । ( लोकेसुपारीतिनाम्ना प्रसिद्धः ) के नीच ___ अर्थ-वात रक्त के प्रकोप से लिंग का पिंडाकार और प्रथित अर्थात् इकट्ठा होकर सम्पूर्ण अवयव छोटे छोटे मुखवाले छिद्रों से लटक पडता है । इस रोग को निवृत्त है। व्याप्त होजाय तो उसे शतपोनक रोग __ अवपाटिका ॥ कहते हैं। . दुरूढं स्फुटितं चर्म निर्दिष्टमवाटिका । । . अर्थ-यदि मेढ़का चर्म फटकर कठि• पित्तासाभ्यां त्वयः पाकस्त्वक्पाको ज्वर त्वक पाक रोग । नता से भरै तो उसे अवपाटिका कहते हैं । दाहवान्। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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