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(९०६)
अष्टांगहृदय ।
म० ३२
समान हो जाता है और पांव कमलदल के वक्त्रे छायामैंदवीं चाशु धत्ते ॥३२॥ तुल्य हो जाते हैं।
. अर्थ-मजीठ, सावरलोध,सौराष्ट्रमृत्तिका, नीलिकादि नाशक नस्य । लाख, दोनों हलदी, मनसिल, हरताल, केसर, कुंकुमोशीरकालीयलाक्षायष्टयाहचंदनम् । कूठ, गोरोचन, गेरू, कच्चे बटके पत्ते, सफेद न्यत्रोधपादास्तरुणान् पद्मकं पद्मकेसरम् ॥ चंदन, लालचंदन, कालाचंदन, पारा, पतंग, सनीलोत्पलमंजिष्ठं पालिकं सतिलाढके।
ढाक की छाल, कमल के बीज, कमलकेसर पक्त्वा पादावशेषेण तेन पिष्टैश्च कार्षिकैः॥ लाक्षापत्तंगमंजिष्ठायष्टीमधुककुंकुमैः।।
मोम, नीलाथोथा, पद्मकादि गणोक्त औषध, अजाक्षीरद्विगुणितं तलस्य कुडवं पचेत् ॥
चर्वी, घी, मज्जा, दूध, दूधवाले वृक्षों का रस नलिकापलितब्यंगवलतिलकधिकान्। इन सब द्रव्यों को अग्निपर पकावै । यह हंति तन्नस्यमभ्यस्तं मुखोपचर्यवर्णकृत् ॥ | ब्यंग और नीलकादि औषधों के नाश करने ___ अर्थ-केसर, खस, दारुहलदी, लाख, में अनुभूत औषध है । इस औषध से मुख मुलहटी, चंदन, बडकी नई डाढी, पदमाख, चन्द्रमा के समान कांतिमान हो जाता है। कमल केसर, नीलकमल और मजीठ, प्रत्येक
नस्य प्रयोग । एक एक पल इनको एक आढक जलमें | मायस्वरसारितोयपिष्टानि नावने । पकावै, चौथाई शेष रहने पर उतार कर अर्थ-भांगरे का रस, दूध और जल छानले । फिर इसमें लाख, पतंग, मजीठ, मिलाकर नस्य देना हित है । मुलहटी, केसर,प्रत्येक एक कर्ष, बकरी का
बकरा का प्रमुप्ति की चिकित्सा । दूध दो कुडव, तेल एक कुडव डालकर पाकविधि के अनुसार पकावे । इस तेलका नस्य ।
| प्रसुप्तौ वातकुष्टोक्तं कुर्याद्दाहं च वह्निना। द्वारा प्रयोग करने से नीलिका, पलित, ब्यंग,
__ अर्थ-प्रसुतिरोग में बात कुष्ठरोगमें कही
हुई चिकित्सा करना चाहिये। और रोमस्थान झुरी, तिलकालक, मुखदूषिका आदि रोग दूर ।
को अग्निसे दग्ध करदेना हित है । होजाते है,तथा यह मुखको पुष्ट कारक और | कांतिवर्द्धक होता है।
- उत्कोठ की चिकित्सा । - व्यंगादिनाशक औषध ।
उत्कोठे कफपित्तोक्तं कोठे सर्वच कौष्टिकम्
। अर्थ-उत्कोठरोग में कफपितोक्त तथा मंजिष्टाशबरोबरपरिकालाक्षाहरिद्राद्वयं
कोठरोग में कुष्ठाधिकार में कही हुई चिकित्सा नेपालीहरितालकुंकुमगदागोरोचनागरिकम् | पत्रं पांडवटस्य चंदनयुगं कालीयकं पारदं ।
करनी चाहिये । पत्तंग कनकवचं कमलजं वीजं तथा- | इतिश्री अष्टांगहृदयसहितायां भाषाटी
केसरम् ॥ ३१ ॥ कान्वितायां उत्तरस्थान क्षुद्ररोगमा सिक्थं तुत्थं पद्मकायो वसाज्यं
तिषेधोनाम द्वात्रिंशोऽध्यायः । मजा क्षीरं क्षीरिवृक्षांबु चानो। सिद्धं सिद्धं व्यंगनील्यादिनाशे
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