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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टांग दये। अ० १२ आहार इनदसकी तथा इनके सूक्ष्मसे सूक्ष्म | उदीरेयत्तरांरोगान संशोधनमयोगतः ७१ ॥ अवस्थाओं का अच्छी तरह विचारकरकं जो अर्थ--भारी व्याधि होनेपर अल्पमात्रावाला चिकित्सा करने में प्रवृत होता है वह किसी अथवा अल्प शक्तिवाला संशोधन ( दोषोंको तरह विफलप्रयत्न नहीं होसक्ता है। शुद्ध करनेवाली औषध ) दैनेसे रोग घटता ____ गुरुलघुव्याधि की परीक्षा। नहीं किन्तु बढता है क्योंकि औषधका रागुर्वल्पयाधिसंस्थानं सत्वदेहबलावलात्। गके साथ हीनयोग होजाता है। दृश्यतेऽप्यन्यथाकारं तस्मिन्नवाहितो भवेत् अल्पव्याधिमंगरुऔषधकानिषेध । अर्थ-व्याधिको गुरुता, और व्याधि की शोधनं त्वतियोगेन विपरीत विपर्यये । अल्पताकी आकृति, रे.गीका धैर्य, रोगीका क्षिणुयान्न मलानेव केवलं वरस्यति ७२ ॥ देह और उसका बलाबल, इनके प्रमाण अर्थ-यादि अन्य व्याधि में अतिनात्र वा भी विपरीतता दिखाई दिया करती है इस उप्रवीर्य संशोधन औषध दी जाय तो अति. लिये ऐसे प्रसंगमें बडी सावधानी की आव- योग होने के कारण वही दीहुई औपः केवल श्यकता है, जैसे रोगीको धैर्य विशन हो । रोगारम्भफ दोप को ही क्षीण करे यह बात देह पुष्ट और बलबान हो तो रोग भारीहोने नहीं किन्तु शरीर का भी नाशकर देतीहै । परभी हलका दिखाई देता है । इसी तरह आश्य रोगनाशक औषय । रोगी में धैर्य कम हो । देह छोटा और नि | अतोऽभियुक्तःसतत समालोच्य था। तथा थुजीत भैषज्यमारोग्याय यथा एवम् ॥ वल हो तो रोग हलका होनेपर भी भारीदि अर्थ-इसलिये निरन्तर आयुर्वेद की चर्चा खाई देता है । इसलिय ऐसी ऊपरी बातों को और आयुर्वेद के पठन पाठन में सदा दत्तदेखकर भूल न खाना चाहिये और रोगका चित्त होकर दोप, दूध, काल आदि सम्पूर्ण सञ्चामहत्व जानकर चिकित्सा करना उचित है। | विषयोंकी आलोचना करत हुआ ऐसी अॅप. कुवैद्यकी भूल । | घों का प्रयोग करें जिससे निश्चय आराम गरुं लघभितिव्याधि करावस्तु भिषग्वः ।। बोलायो अस्पदोषाकलनया पथ्ये विप्रतिपद्यते २० ॥ दोप की वृद्धि के भेद । अर्थ-कुत्सित अर्थात् केवल नामधारी वैद्य वक्ष्योऽतःपरं दोगा वृद्धिशयविभेदतः । व्याधिकी आकृतिमात्र देखकर गुरुव्याधि को | पृथक्त्रीन् विद्धि संसर्गस्त्रिया तरतु तान्नद। अल्प मानकर हीनमात्रावाली औषध देता है | त्रीनेवसमया वृद्धया पडे कस्याऽतिशायने। और अल्प व्याधिको गुरुनानकर भारी व्या- त्रयोदश समस्तेषुप द्वयाशियेन तु ७५ धिक योग्य औषध दं देता है इसस रोगी | एकंतुल्याधि ट्च तारतम्यविकल्पनात् का बड़ा अहित हो जाता है । अर्ध-अव यहांसे आगे दोपोंकी वृद्धि और हीनमात्र संशोधन । क्षय से जो भेद होतेहै उनका वर्णन करेंगेततोऽल्पमल्पधी वा गुरुव्याधौप्रयोजितम् | बात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंमें जुदे जुदे For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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