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___ अष्टांगहृदय ।
तीन प्रस्थ, गुडआधी तुला । इनको मिला- मोथा, चीनी, नेत्रवाला, चंदन और मुलहटी कर मंदी आग पर पकावै, इसका उपयुक्त इनके चूर्णको द्राक्षारस के साथ विरेचनार्थ मात्रा द्वारा सेवन करने से कूठ, अर्श, का- प्रयोग करे । मला, गुल्म, प्रमेह, भगंदर, ग्रहणी, और
हेमंतमें विरेचन । पांडुरोग नष्ट होजाते हैं,तथा यह पौरुषवर्द्धक, त्रिवृता चित्रकं पाठामजाजी सरलं वचाम् ॥
स्वर्णक्षीरीं च हेमंते चूर्णमुष्णांवुना पिबेत् । भी है, यह कल्याणक नामक गुड संपूर्ण
____ अर्थ-निसोथ, चीता, पाठा, जीरा, सरऋतुओं में योजनीय है।
लकाष्ठ, बच और स्वर्णक्षीरी इनका चूर्ण गअन्य गोली । व्योषत्रिजातकांभोदकृमिघ्नामलकै स्त्रिवृत् |
रम जलके साथ पीनेसे हेमंतऋतु में विरेचन सर्वैः समा समसिताः क्षौद्रेणगुटिका कृता हाता है ।
| होता है। मूत्रकृच्छज्वरच्छर्दिकासशे भ्रमक्षय २२। ग्रीष्ममें विरेचन । तापेपांड्वामयेऽल्पेऽग्नौशस्ताःसर्वेविषेषुच | त्रिवृताशर्करातुल्या ग्रीष्मकाले विरेचनम् ॥
अर्थ-त्रिकुटा, त्रिजातक, मोथा, बाय- अर्थ-निसोथ का चूर्ण और बराबर की बिडंग, और आमला प्रत्येक समान भाग, | खांड मिलाकर जल के साथ पीनेसे ग्रीष्मकाल निसोथ और चीनी सबके समान भाग, इन में विरेचन होता है । सबको कूट, पीसकर गुड में मिलाकर गोलियां स्निग्ध के लिये विरेचन । बना लेवे । ये गोलियां मूत्रकृच्छ्,ज्वर, वमन, त्रिवृत्रायंतिहपुषासातलाकटुरोहिणीः। खांसी, भ्रम, क्षय, संताप, गांडुरोग, अग्नि- स्वर्णक्षीरी च संचूर्ण्य गोमूत्रे भावयेत्त्यहम् मांद्य, और संपूर्ण प्रकोषरोगों को दर एषसर्वर्तुको योगः स्निग्धानां मलदोषहत् । करती हैं।
___ अर्थ-निसोथ, त्रायमाणा, हाऊबेर, सातअन्य विरेचन ।
ला, कुटकी, और स्वर्णक्षीरी इनका चूर्ण ब. त्रिवृता कौटजं वीजं पिप्पली विश्वभषजम्॥
नाकर तीन दिनतक गोमूत्रकी भावना देवै । लौद्राक्षारसोपेतं वर्षाकाले विरेचनम्। यह योग सब ऋतुओं में स्निग्ध पुरुषों के
अर्थ-निसोथ, इन्द्रजौ, पीपल और सोंठ | मल दोषों को हनेवाला है । इनके चूर्ण में शहत और द्राक्षारस मिलाकर रूक्षपुरुषों को विरेचन । सेवन करने से वर्षा ऋतु में विरेचन श्यामात्रिवृद्दुरालभाहस्तिपिप्पलि वत्सकम् होता है।
नीलिनीकटुकामुस्ताश्रेष्ठायुतं सुन्चूर्णितम् । शरदऋतुमें विरेचन ।। । रसाज्योष्णाम्बुभिःशस्तरक्षाणामपिसर्वदा॥ विकृद्दुरालभामुस्तशर्करोदाच्यचंदनम् ॥
| अर्थ-झ्यामा तृवृता, दुरालभा, गजपीपल द्राक्षांतुना सयष्ठयाह सातलं जलदात्यये। । इन्द्रजौ, नीलवृक्ष, कुटकी, मोथा, त्रिफला, इ.
अर्थ- शरदऋतु में निसोथ, दुरालभा, न के चूर्णको मांसरस, घी मा उष्ण जलके
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