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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ. १ उत्तरस्थान भाषाकासभेत । ( ७३३, सारिवा इनसे सिद्ध किया हुआ घृत भी | राना, सितावर, और मुलहटी, इन सबको प्रयोग में लाना चाहिये । समान भाग लेकर इनका कल्क करके तैल अन्य प्रयोग। पाककरे । यह लाक्षादि तैल मर्दन करने से अंगीमधूलिकाभार्गीपिप्पलादेवदारुभिः ५१ / बल को बढाता है, ज्वर, क्षयी, उन्माद, अश्वगन्धाद्विकाकोलारास्त्रर्षभकजीयकैः । श्वास, अपस्मार तथा वात रोगों को दूर सूपपर्णीविडंगैश्च कलिकतैः साधितम् । | करता है । यक्ष, राक्षस और भूतों का घृतम् ॥५२॥ शशोत्तमांगनि!हे शुध्यतः पुष्टिकृत्परम् । | नाश करता है । गर्भिणी स्त्रियों के लिये अर्थ-काकडासींगी, मुलहटी, भाइंगी | पीपल, देवदारु, असगंध, काकोली, क्षीर- | लाक्षादि तैल । काकोली, रास्ना, ऋषभक, जीवक, शूर्प- मधुनाऽतिविषाश्रृंगापिप्पललिहेयच्छिशुम् पर्णी और बायबिडंग इनके कल्क तथा | एकां वातिविषां कासज्वरछदिरुपद्रुतम् । खर्गोश के सिरके काढे के साथ सिद्ध किया ___ अर्थ-अतीस, काकडासींगी, पीपल, इन हुआ घी सूखे हुए बालक को अत्यन्त पुष्टि | के चूर्ण को अथवा केवल अतीस के चूर्ण कारक है। को शहत के साथ चटाने से बालक की ___ अभ्यंजन के लिये तेल। खांसी, ज्वर, वमन, आदि उपद्रव जाते वचावयस्थातगरकायस्थाचोरकैः श्रुतम् ॥ | रहते हैं। बस्तमूत्रसुराभ्यां च तैलमभ्यंजने हितम् । अन्य अवलेह । अर्थ-बच, आमला, तगर, हरड, और चोरक इनके कल्क तथा वकरे के मुत्र और पीतं पीतं वमति यः स्तन्यं तं मधुसर्पिषा । द्विवार्ताकीफलरसं पञ्चकोलं च लेहयेत् । सुगके साथ पकाया हुआ तेल अभ्यंजनमें पिप्पली पञ्चलवणं कृमिजित्पारिभद्रकम् ॥ तद्वल्लिह्यात्तथा व्योष मषीं या रोमचर्मणाम् बालककी खांसीआदि में लेह । लाभत:लाक्षारसलमं तैलंप्रक्ष्यं मस्तुवर्गणम्॥ । शल्यकश्वाविद्रोधर्मशिस्निजन्मनाम् ६०॥ अश्वगन्धानिशादारुकौतीकुष्ठाब्दचन्दनैः । अर्थ-जो बालक दूध पीते ही धमन समूारोहिणीरानाशताहामधुकैः समः ॥ कर देता है उसे दोनों प्रकार के बेंगनोंका सिद्धं लाझांदिकं नाम तैलमभ्यंजनादिदम्।। रस वा पंचकोल का चर्ण घी और शहत के बल्यं ज्वरक्षयोन्मादश्वासापस्मारवातनुत् यक्षराक्षसभूतघ्नम् गर्भिणीनांच शस्यते।। साथ चटावै । इसी तरह पीपल, पांचों - अर्थ--एक प्रस्थ तेल और इतनाही ला. नमक, बायबिडंग और नीमको चटावै । खका रस और चौगुना दही का पानी, | अथवा त्रिकुटा का चूर्ण अथवा शल्यक,सेह, तथा असगंध, हलदी, देवदारु, रेणुक, | | गोधा, रीछ और मोर इनके चमडे वा रोमों कूठ, नागरमाथा, रक्तचंदन, मर्वा, कुटकी, | की राख और शहत मिलाकर चाटै । हितहै। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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