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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० ११ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । (१०३) अर्थ-बढे हुए पसीने पसीनों को अ- | - रसादि की क्षीणता । | रसे रौक्ष्यं श्रम शोषोग्लानिःशब्दासहिष्णुता धिकता, दुर्गन्धि और खुजली पैदा करते हैं । रक्तेऽम्लशिशिरप्रीतिशिराशैथिल्यरूक्षताः॥ अन्यमल। मांसेऽक्षग्लानिगंडस्फिकशुष्कतासंधिवेदना एवं च लक्षयेत् । मेदासे स्वपनं कट्याः प्लीह्रो वृद्धिः कृशांगता दूषिकादीनपिमलान बाहल्यगरुतादिभिः१४/ अस्थन्यस्थितोदः शदनं दंतकेशनखादिषु । अर्थ-इसी तरहसे आंख के मल को भी अस्मां मजनि सौषिर्य भ्रमास्तमिरदर्शनम्॥ शुक्र चिरात् प्रसिच्येत शुक्रं शोणितमेव वा। जानना चाहिये आदि शब्द से नाक कान तादोऽत्वर्थ वृषणयोर्मेंदूं धूमायतीव च॥२०॥ आदि का भी मल होताहै इन की परीक्षा | अर्थ-रसके क्षीण होने से रूक्षता, थका यही है कि मल बहुत निकलता है और उस | वट, सूजन, ग्लानि और शब्द सुनने में स्थान में भारापन आजाता है आदि शब्द | अरुचि । ये रोग होतेहै । रक्त के क्षीण हो. से खुजली क्लेदादि का भी प्रहग है। ने पर खट्टे और तिल पदार्थो के सेवन में क्षीणवातादि के लक्षण | रुचि बढती है । नसें ढीली पड़जाती हैं । लिंगंक्षीणेऽनिलेऽगस्यसादोऽल्पंभाषितेहितम और शरीर रूक्ष हो जाता है । मांस के संज्ञामोहस्तथा श्लेष्मवृध्युक्तामयसंभवः।१५ क्षीण होने पर इन्द्रियों में ग्लानि, गंडस्थल पित्ते मंदोऽनल शीतंप्रभाहानिः कफे भ्रमः। और कूल्हों में कृशता, और हाथ पांव के श्लेष्माशयनां शून्यत्वं हृवश्लथसंधिताः१६ | जोडों मे दर्द पैदा होता है । मेद के क्षीण अर्थ - शरीर में जितनी वातकी आव होने पर कटिभाग में शिथिलता, प्लीहा श्यकता है उससे कभी होने पर ये चिन्ह की वाद्ध, और शरीर में कृशता होती है । होते हैं यथा शरीर के अवयव अपने २ कर्म अस्थि के क्षीण होने पर हड़फूडन, तथा करने में असमर्थ होजाते हैं । वोलने और | दांत केश और नख आदि का पतन होने शरीर के व्यापार में न्यूनता आजाती है, लगता है मज्जा के क्षीण होने पर अस्थियों संज्ञा का नाश होजाता है तथा कफ की में छिद्र भ्रम तथा आंखों के आगे अँधेरा वृद्धि में जो जो रोग पीछे कह आये हैं ये छा जाता है । वीर्य के क्षीण होने पर वी ये भी सब उत्पन्न होजाते हैं। बहुत देर में निकलता है । अथवा वीर्य के पित्तक्षीण होने पर जठराग्नि की मंदता, बदले रुधिर आने लगता है अंडकोषों में अत्यन्त वेदना होने लगती है और शिश्नेशीतलता तथा कांति की हानि होजातीहै । न्द्रिय में ज्वालासी उठती है । कफक्षीण होने पर भ्रम होता है तथा हृदय मल की क्षीणता । शिर और संधि आदि कफ के स्यान शून्य पुरीषे वायुरंत्राणि सशब्दो वेष्टयन्निव ।। पड़ जाते हैं। | कुक्षौ भ्रमति यात्यू हृत्पार्श्वपीडयन्भृश्नम् For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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