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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८४) अष्टांगहृदये। अ० ११ मूळेऽल्पं मूत्रयेत्कृच्छाद्विवर्ण सास्रमेव वा।। षादि में जो पदार्थ जिभ गुणवाला है देह में श्वेदे रोमच्युतिःस्तब्धरोमता स्फुटनं त्वचः॥ यदि उनके विपरीत गुणकी क्षीणता दिखाई अर्थ-पुरीष के क्षीण होने पर वायु शब्द दे तो समझना चाहिये कि उस पदार्थ की करती हुई सम्पूर्ण आंतों के चारों ओर लि- वद्धि है और जो बुद्धि दिखाई दे तो जान पटती हुई उदर में अत्यन्त भ्रमण करती है । अत्यन्त भ्रमण करता है | लेना चाहिये कि उस की क्षीणता है यथातथा हृदय और पसलीमें अत्यन्त पीडा करती वायु के गुण रूक्षलघु और शीत आदि हैं, हुई ऊपर को चढती है । मूत्रके क्षीण होने इन गुणों से विपरीत गुण स्निग्ध, गुरु और पर थोडा २ बहुत कष्ट से पेशाव होता है उष्णादि हैं शरीर में यदि इन स्निग्धादि विपकिंतु विवर्ण और रुधिर सहित मूत्र होताहै रीत गुणों की वृद्धि हो तो जान लेना चाहिये पसीनों के क्षीण होने पर रोम गिर पडते हैं कि बात की क्षीणता है और जो स्निग्धादि की तथा रोमों में स्तब्धता और त्वचा में फटन | क्षीणता दिखाई दे तो जान लेना चाहिये कि पैदा होती है। वायुको वृद्धिहै । इसी तरह और पदाथों की भी घ्राणादिमलकी क्षीणता। क्षयवृद्धि जानी जा सकती हैं । यथा पुरीषादि मलानामतिसूक्ष्माणां दुर्लक्ष्यं लक्षयेत् क्षयम् । मलों के संग अर्थात् कम निकलने से वृद्धि स्वमलायनसंशोषतोदशून्यत्वलाघवैः ।२३।। और अधिक निकलने से क्षीणता समझ लेनी अर्थ-आंख का मैल, कान का मैल, चाहिये। नाक का मैल आदि सूख गये हों वा थोडे मलकी क्षीणता का उपद्रव । निकलते हों तो उनकी क्षीणता समझना | मलोचितत्वादेहस्य क्षयो वृद्धस्तु पडिनः। कठिन है, तथापि मलस्थान के सूख जाने । अर्थ - यद्यपि मल की वृद्धि और क्षय स, उन म दद हान स, अथवा एसा मा- दोनों ही पीडाक रक है तथापि मलकी क्षीलूम होने से कि खाली होगया है वा हलका | णता से जो पीडा होती है वह बृद्धि से होगया है मल की क्षीणता जानने में | नहीं होती है । इसका कारण यही है कि आती है । मल देह के अनुकूल होता है अर्थात् मलके दोषादि की सामान्य क्षयवृद्धि । द्वारा शरीर की रक्षा रहती है कहा भी है दोषादीनां यथास्वं च विद्यादृवृद्धिक्षयौ भिषक "मलायत्तं बलं पुंसां "। क्षयेग विपरीतानां गुणानां वर्धनेन च ॥२४॥ दोषों का आश्रय । वृद्धिं मलानां संगाच क्षयं चाऽतिविसर्गतः। | तत्राऽस्थनि स्थितो वायुःपित्तं तु स्वेदरक्तयोः . अर्थ-दोष, धातु और मलों की बृद्धि | श्लेष्माशेषेषु तेनैषामाश्रयायिणां मिथः । तथा क्षयका पूरा पूरा वृतान्त पीछे लिखा यदेकस्य तदन्यस्य वर्धनक्षपणौषधम् । आस्थमारुतयोनैवं प्रायो वृद्धिर्हि तर्पणात् ॥ गया है वह वैद्य को समझ लेना चाहिये । श्लेष्मणाऽनुगतातस्मात्संक्षयस्तद्विपर्ययात् अब संक्षेप रीति से कहते हैं कि इन दो- घायुनाऽनुगतः For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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