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४१२)
अष्टांगहृदय ।
अ० १२
आनाहलिंगस्तियक्तु प्रत्यष्ठीलातदाकृतिः ।
द्वादशोऽध्यायः ! अर्थ-जो ग्रंथि ऊपरको उठी हुई होतीहै तथा कठोर अष्ठीला के सदृश और आनाह के लक्षणों से युक्त होती है, उसे अष्ठीला
अथाऽतो उदरनिदानम् व्याख्यास्यामः। कहते हैं जो ग्रंथि तिरछी हो और ऊपरको
अर्थ-अब हम यहांसे उदरनिदान नामउठी हुई हो उसे प्रत्यष्ठीला कहते हैं। । क अध्यायकी व्याख्या करेंगे । तूनी प्रतूनीके लक्षण ।
. उदर की उत्पत्ति। पक्वाशयाद्गुदोपस्थं वायुस्तीवरुजःप्रयान्
"रोगाःसर्वेऽपि मन्देऽग्नौ सुतरामुदराणि तु
| अजीर्णान्मालनैश्वान्नैर्जायते मलसंचयात् ॥ तूनीप्रतूनीतु भवेत्स एवातो विपर्यये ६१ ॥
अर्थ-सव प्रकारके रोग मंदाग्निसे ही उअर्थ-तूनी रोगमें वायु अत्यन्त तीब्र
त्पन्न होतहैं, परन्तु उदररोग विशेष करके मं- . येदना करता हुआ पक्वाशय से गुदा और
दाग्नि से होते हैं । चार प्रकार के अजीर्ण उपस्थेन्द्रियकी ओर जाता हैं । प्रतूनीरोग
[आम, विष्टब्ध, विदग्ध और रसशेष), सडा में इससे विपरीत होता है, अर्थात् तीव्र
हुआ बासी और संकीर्णादि लक्षणोंसे युक्त वेदना से युक्त वायु गुदा और उपस्थेन्दिय
मलिन अन्न और बहुत दिनके मलके संचय की ओर से पक्वाशयकी ओर जाता है ।
से उदररोग उत्पन्न होते है । गुल्मके पूर्वरूप ।
उदररोग की समाप्ति । उदारबाहुल्यपुरीषबन्ध
ऊर्ध्वाधोधातवो रुवावाहिनीरंबुवाहिनीः तृप्त्यक्षमत्वांत्रविकूजनानि ।
प्राणाग्न्यपानान् संदूष्यकुंयुस्त्वङ्मांस आटोपमाध्मानमपक्तिशक्ति
- संधिगाः ॥२॥ मासन्नगुल्मस्य वदति चिन्हम् ,, ६२॥ आध्माप्य कुक्षिमुदरम्अर्थ-डकारों की आधिकता, पुरीषका
अर्थ-अग्नि की मंदता के कारण विबंध, अन्नमें अनिच्छा, अंत्रकूजन, आटोप
प्रकुपित हुए वातादि दोष त्वचा और मांस आध्मान, अग्निमांद्य ये सब उत्पन्न होनेवाले
की बीचवाली संधियों में स्थित जलवाही गल्मके पूर्वरूप होते हैं ।
स्रोतों को रोककर और प्राणवायु, अग्नि इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषा- और अपान वायुको दूषित करके तथा टीकायां निदानस्थाने विद्रधि- | कुक्षि में अफरा उत्पन्न करके उदररोगों को गुल्म निदानं नामैकादशो
उत्पन्न करते हैं।
उदररोग के आठ भेद । ऽध्यायः ।
: अष्टधा तश्च भिद्यते। पृथग्दोषैः समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकैः ।
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