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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अष्टांगहृदय 1 ( ७९८ ) वमन अर्थ- तिमिररोग न होने पर भी चिंता चोट, भय, शोक, रूक्षता, उकडू बैठना, . तथा विरेचन, नस्य, और पुटपाकादि के विभ्रमसे, विदग्ध भोजन की वमनसे, क्षुवा तृषा आदि के वेगों के रोकने से और नेत्ररोग के अवसानसे, इन सब कारणों से मनुष्य तिमिररोगी की तरह देखता है । उक्तरोग में चिकित्सा | यथास्वं तत्र युं जीत दोषा दीन वीक्ष्य भेषजम् । अर्थ- ऊपर लिखे हुए रोग में दोष, दूष्य और देशादि की विरेचना करके चिकित्सा करनी चाहिये | अन्य नेत्ररोगों में कर्तव्य | सूर्योपरागावलविद्युदादि विलोकनेनोपहतेक्षणस्य । संतर्पणं स्निग्धहिमादि कार्य तथाजनं मघृतेन घृष्टम् ॥ ९६ ॥ अर्थ- सूर्यग्रहण, अग्नि, विजली, तथा आदि शब्द से अति सूक्ष्म और अति मासुर पदार्थों के देखने से जिस मनुष्य की दृष्टि मारी जाती है उसे स्निग्ध हिमादि संतर्पण और घी में घिसे हुए सुवर्ण का अंजन लगाना चाहिये । नेत्ररोग में अहिताशनत्याग ! अहितादशनात्सदा निवृत्तिभृशभास्वच्चलसूक्ष्मवीक्षणाच्च । मुनिनानिमिमोपदिष्टमेतत् परमं रक्षणमीक्षणस्य पुंसाम ॥ ९९ ॥ अर्थ - अहित भोजन का सर्वदा त्याग, अत्यन्त भःसुर, चंचल और सूक्ष्म वस्तुओं का देखना इन सबसे निवृत्त होजाना अर्थात् इनका त्याग देना नेत्ररोगों से बचने का परमोत्तम साधन है । यह निमि महाराज का उपदेश है । | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाठीकान्वितायां उत्तरस्थाने तिमिर प्रतिषधं नामत्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ चतुर्दशोऽध्यायः । नेत्ररक्षाकारक | चक्षूरक्षायां सर्वकालं मनुष्यै ः कर्तव्य जीविते यावदिच्छा । व्यर्थो लोकोऽयं तुल्यरात्रिंदिवानां समंधानां विद्यमानेऽपि वित्ते । ९७ । अर्थ - मनुष्य जब तक जीने की इच्छा रखता हो, तब तक उसे यत्नपूर्वक नेत्रों की रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि अंधों के लिये दिन रात एक से होते हैं । उनके पास अतुलधन होने पर भी निरर्थक होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० For Private And Personal Use Only १४ नेत्ररोग में त्रिफला । त्रिफला रुधिरस्स्रुतिर्विशुद्धिमनसोनिर्वृतिरंजनं च नस्यम् । शकुमाशनता सपादपूजा घृतपानं च सदैव नेत्ररक्षा ॥ ९८ ॥ अर्थ-त्रिफला, रक्तस्राव, विरेचनादि विशोधन, मनकी शांति, अंजन, नस्य, पक्षियों का भोजन, जूते आदि पहरना, और घृतपान, इन सबका प्रयोग करने से नेत्रों की रक्षा होती है । अथातो लिंगनाशप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः । अर्थ- अब हम यहां से लिंगनाश अर्थात् दृष्टिनाश की चिकित्सा का व्याख्यान करेंगे ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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