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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० १४ www. kobatirth.org उत्तरस्थान भाषांटीकासमेत । कफजन्यलिंगनाश में कर्तव्य | विध्येत्सुजातं निःप्रेक्ष्यं लिंगनाशं कफोद्भवम् आवर्तक्यादिभिः षडुभिर्विवर्जितमुपद्रवैः ॥ अर्थ- आवर्तकी आदि छः उपद्रवों से रहित कफज लिंगनाश जो अच्छी तरह से घनीभूत और निष्प्रेक्ष अर्थात् देखने की शक्ति से हीन हो उसका व्यध करना चाहिये । वेधन का हेतु । सोऽसजातो हि विषमो दधिमस्तुनिभस्तनुः शलाकयाऽवकृष्टोऽपि पुनरु प्रपद्यते | २| करोति वेदनां तीव्र दृष्टिं च स्थगयत्पुनः । मलैः पूर्यते चाशु सोऽन्यैः सोपद्रवैश्चिरात् ॥ ३ ॥ अर्थ - यदि यह लिंगनाश असम्यक् रीति से उत्पन्न और विषमाकृतिवाला हो तथा दहीके तोडकी सी कांतिवाला और पतला हो, ऐसा होने पर शलाई से खींचे जाने पर भी फिर ऊपर को उठता हुआ तीव्र वेदना उत्पन्न करता है तथा दृष्टि को आच्छादित करता है । कफकारक आहार करने से शीघ्र भर जाता है और अन्य उपद्रवों से युक्त होने के लिये बहुत काल लगता है । श्लेष्मादिक लिंगनाशक के लक्षण । लैष्मिको लिंगनाशो हि सितत्वात् श्लेष्मणः सितः । तस्यान्यदोषाभिभवाद्भवत्यानलिता गदः ॥ अर्थ - कफ की सफेदाई के कारण लिंगनाश सफेद होता है, किंतु वातादि अन्यदोषों के कारण यह नीलरूप होजाता है। 1 आवर्तकी दृष्टि । तत्रावर्तचला दृष्टिरावर्तक्यरुणा सिता । ( ७९९ ) अर्थ - आपकी दृष्टिरोग में दृष्टि जल की भंवर के समान चंचल होती है और यह अरुण व कृष्णवर्ण होती है । शर्करा दृष्टि | शर्करार्कपोलेशनिचितेव घनाति च ॥ अर्थ - शर्कराष्ट्रष्टि आक के दूधके कणों से उपचितवत् और अतिघन होती है । राजीमती दृष्टि । राजीमती निचिता शालिशूकाभराजिभिः अर्थ-राजीमतीदृष्टि शालीधान्यों के शुक से व्याप्त की तरह होती है । विमादृष्टि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषमच्छिन्नदग्धाभास रुकूछिन्नांशुकास्मृता अर्थ- जो दृष्टि विषम, छिन्न, दग्धाम और वेदनायुक्त हो तो इसे छिन्नांशुका कहते हैं । चन्द्रकी दृष्टि | दृष्टिः कांस्य समच्छाया चंद्र की चंद्रकाकृतिः अर्थ- कांजी के समान छायावाली और मोरकी चन्द्रका के समान जो दृष्टि होती है उसे चन्द्रकी कहते हैं । छत्र की दृष्टि | छत्राभा नैकवर्गाच छत्रकी नाम नीलिका ॥ अर्थ- जो दृष्टि अनेक वर्णों से युक्त छत्र के आकार कीसी होती है उसे छत्रवी नीलिका कहते हैं । अविध्य दृष्टि । न बिध्येदसि राहणांन डकूपीनसकासिनाम् नाजीर्णि स्विमितशिरः कर्णाक्षिशूलिनाम् अर्थ- जो रोगी शिरावेंध के योग्य नहीं है, जो दृष्टिरोग, पनिस और खांसी से For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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