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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (८००) www. kobatirth.org पीडित है, जो अजीर्ण, भीरु, वमित तथा जो सिर, कान और आंख के शूलसे पीडित है, उसके लिंगनाश को बेधना न चाहिये । दक्षिणादि व्यध प्रकार । अथ साधारणे काले शुद्धसंभोजितात्मनः । देशे प्रकाशे पूर्वा भिषगू जानूच्च पीठगः ॥ यंत्रितस्योपविष्टस्य स्विन्नाक्षस्य मुखानिलैः अंगुष्ठमृदिते नेत्रे दृष्टौ दृष्ट्वोत्प्लुतं मयम् ॥ स्वनासां प्रेक्षमाणस्य निष्कंपं मूर्ध्नि धारिते । कृष्णादीगुल मुक्त्वा तदर्घाधमपांगतः ॥ तर्जनीमध्य मांगुष्ठैः शलाकां निश्चलं हृदय । अ० १४ के मस्तक को सीधा करके पकडले । रोगी को उचित है कि अपनी दृष्टि नासिका के अप्रभाग में लगा लेवै । फिर वैद्य तर्जनी उंगली और अंगूठे से निश्चलरूप से सलाई को पकडकर कृष्णमंडल से आधे अंगुल और अपांग से चौथाई अंगुल स्थान छोडकर दैवकृत छिद्र के समीप ले जाय और ऊर्ध्व भाग में आलोडन करके शलाई का प्रयोग करे । तथा दाहिने हाथ से बांये नेत्रको और बांये हाथ से दाहिने नेत्र को बिद्ध करे । सुबिद्ध के लक्षण | धृताम् । देवच्छिद्रं नयेत्पार्थ्यादूर्ध्वमामथयाव १२ सुय दक्षिणहस्तने नेत्रं सव्येन चेतरत् । विध्येत् अर्थ - लिंगनाश के विद्व करने की यह रीति है कि साधारण कालमें अर्थात् जिस समय अत्यन्त गर्मी, वर्षा वा जाडा न पड रहा हो उसी समय लिंगनाश का व्यध करना चाहिये | विद्व करने से पहिले विरेचनादि द्वारा रोगी को संशोधित करे और भोजन कराके अच्छी तरह तृप्त करदे । जिस जगह चांदना अच्छा हो उसी जगह रोगी को बैठाकर शस्त्रका प्रयोग करे | शस्त्रका प्रयोग प्रातःकाल करना उचित है । वैद्य जानुकी बरावर ऊंचे आसन पर बैठकर शस्त्र प्रयोग करे | शस्त्रका प्रयोग करने के | समय रोगी हिलने न पावै ऐसी रीति से उसको सुयंत्रित करे, शस्त्र के प्रयोग से पहिले मुखकी भाफ से रोगी के नेत्रको स्वेदित करे फिर उस स्त्रिन्न नेत्रको अंगूठे से मर्दित करे, इस तरह जब नेत्रका मल फूल उठे तब रोगी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुविद्धे शब्दः स्यादरुक्चांबुल स्रुतिः । सांत्वयन्नातुरं चानु नेत्रं स्तन्येन सेचयेत् । शलाकायास्ततोऽग्रेण निर्लिखेनेत्रमंडलम् अबाधमानः शनकैर्नासां प्रतिमुदस्ततः । उत्सिंचनाच्चापहरेदृष्टिमंडलग कफम् १५ अथ दष्टेषु रूपेषु शलाकामाहरेच्छनैः १६ स्थिरे दोषे चले वापि स्वेदयेदक्षि बाह्यतः घृतप्लुतं पिधुंदत्त्वा बद्धाक्षं शाययेत्ततः । विद्वादन्येन पार्श्वेन तमुत्तानं द्वयोर्व्यधे १७ निवाते शयनेऽभ्यक्तशिरःपादं हिते रतम् अर्थ - सुविद होनेपर शब्द होता है, वेदना नहीं होती और लेशमात्र जलका खाब होता है | विद्व करने के पीछे रोगी को आश्वासन देना चाहिये तथा स्त्रीका दूध नेत्रों पर डालना चाहिये, फिर सलाई को नौक से दृष्टिमंडल को ऐसी रीति से बिलेखन करे कि दर्द न हो । फिर धीरे धीरे सुडक सुडक कर दृष्टिमंडल के कफको खींचकर नासिका द्वारा निकाल देवै । जो दोष स्थिर वा चलायमान हो तो नेत्रमें अधिकता से स्वेदन करके जब वह दुष्ट पदार्थ दिखाई For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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