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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १४ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (८.१) देने लगे तब धीरे धीरे उसे सलाई से खींच एक सप्ताह पीछे एक बार खोलदे और फिर लेवै । तदनंतर कपडे को घी में भिगोकर | न बांधे । आँख पर बांधदे और रोगीको पातरहित अतिसूक्ष्मदर्शन निषेध । स्थानमें बिपरीत रीति से शयन करावे यंत्रणामनुरुध्येत दृष्टेरास्थैर्यलाभतः । अर्थात् जो दक्षिण नेत्र विद्ध हुआ हो तो रूपाणि सूक्ष्मदीप्तानि सहसा मावलोकयेत् बोई करवट से, वामनेत्र विद्ध हुआ हो तो अर्थ--जब तक दृष्टिमें स्थिरता न हो दाहिनी कर्वट से और दोनों नेत्र बिद्ध हुए तब तक नियमपूर्वक रहना उचित है। हों तो चित्त शयन करादे उसके मस्तक और दृष्टिके स्थिर होनेपर भी अति सूक्ष्म और दोनों तलुओं पर तेल चुपडदे तथा हितकारी चमकीली वस्तुओं को सहसा नहीं देखना आहार विहारादि में रत रक्खै । चाहिये । सात दिनतक वर्जित कर्म। उपदरोंके अनुसार चिकित्सा । क्षवधु कासमुद्गारं ष्टीवन पानमंभसः १८ शोफरागरुजादानामाधिमंथस्य चोद्भवः। अधोमुरस्थिति सानं दंतधावनभक्षणम् । | अहितैर्वेधदोषाच्च यथास्वं तानुपाचरेत् सप्ताहं नाचरेत्स्नेहपीतवच्चात्र यंत्रणा १९ अर्थ-अहित सेवन और बेध दोष के अर्थ-छींक, खांसी, डकार, ष्टीवन, . कारण अधिमंथ में सूजन, ललाई और पेदजलपान, अधोमुखस्थिति, स्नान और दंत. नादि उपद्रव होते हैं, इन उपद्रवों को धावन ये काम सातदिन तक नेत्रविद्वरोगी यथायोग्य चिकित्सा के अनुसार शांत करे। को छोड देने चाहिये और इसमें स्नेहपीत मुखमलेप। के समान नियमपूर्वक रहना उचित है । कलिकताः सघृता दूर्वायवगैरिकंसारिवाः । शक्ति के अनुसार लंघनादि। मुखालपे प्रयोक्तव्या रुजारागोपशांतये ॥ शक्तितो लंघयेत्सेको राजि कोणेन सर्पिषा ___ अर्थ-वेदना और रोगकी शांति के सव्योषामलकं वाट्यमश्नीयात्सधृत द्रवम् निमित्त दुब, जौ, गेरू और अनंतमूल इन विलेपी या व्यहाच्चास्य क्वार्थर्मुक्त्वाक्षि सब द्रव्यों को पीसकर और घी में सानकर सेचयेत् ।। मुख पर लेप करना चाहिये । पातघ्नःसप्तमे त्वन्हि सर्वथैवाक्षि मोचयेत् अन्य प्रयोग। __ अर्थ- शक्ति के अनुसार रोगी को लंघन ससर्षपास्तिलास्तद्वन्मातुलुंगरसाप्लुताः । कराना चाहिये, जब तक पीडा बिलकुल पयस्यासारिवानंतामजिष्टामधुयाष्टिभिः ॥ दूर न हो तब तक गुनगुना घी ऊपर से / अजाक्षारयुतैलेपः सुखोष्णःशर्मकृस्परम् । डालता रहै । त्रिकुटा और आमला मिलाकर | अर्थ-तेल और सरसों को पीसकर घृतके साथ मुने हुए जौ का पना वा विलेपी और विजौरे के रसमें सानकर लेप करनेसे खाने को दे । तीन दिन पीछे नेत्रों की पट्टी पूर्ववत् गुण होता है । दुग्धका, श्यामालता खोलकर वातनाशक क्वाथ से परिषेक करे।। अनन्तमूल, मीठ, मुलहटी, इन सब द्रव्यों For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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