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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८०२) - अष्टांगहृदय । अ० १५ लो बकरी के दूधर्म सानकर और आगपर | अर्थ-अडहर की जड, कालीमिरच, गुनगुना करके लेप करनेसे विशेष उपकार | हरताल और रसौत इन सब द्रव्यों को वृष्टि होता है। के जलमें पीसकर और गुड मिलाकर बत्ती आश्चोतनविधि। | बनाकर विद्ध नेत्रमें लगावे । रोधसैंधवमृद्धीकामधुकैश्छागलं पयः । विद्धनेत्रमें पिंडाजन ॥ शुतमाश्चोतन योज्यं रुजारागविनाशनम् । जातीशिरीषधवमेषविषाणिपुष्पअर्थ-लोध, सेंधानमक, दाख और मु. वैडूर्यमौकिकफलं पयसा सुपिष्टम् । लहटी इन सब द्रव्यों को बकरी के दूधमें आजेन ताम्रममुना प्रतनु प्रदिग्धं । पकाकर आश्चोतन (आंखमें टपकाना) सप्ताहतःपुनरिदं पयसैव पिष्टम् ३१ पिंडांजनं हितमनातपशुष्कमक्षिण करने से वेदना शांत होजाती है । विद्ध प्रसादजनन बलकश्च दष्टेः । अन्य प्रयोग। अर्थ-चमेली, सिरस, धायके फूल, मधुकोत्पलकुष्टैर्वा द्राक्षालाक्षासितान्वितैः । वातघ्नसिद्धे पयसि शृतं सर्पिश्चतुर्गुणे ।। मेंढासिंगी, वैदर्यमणि, मोती इन सब द्रव्यों पनकादिप्रतीवापं सर्वकर्मसु शस्यते २८ । को बकरी के दृधमें पीसकर इसको एक अर्थ-मुलहटी, नीलकमल, कूठ, दाख, तांबके पात्र पर पतला पतला लीपदे । एक लाख और चीनी इन सब द्रव्यों को बकरी सप्ताह पीछे तांबे के पात्रके प्रलेपको बकरी के दूधमें पकाकर आश्चोतन करे । वात- | के दूधर्मे फिर पीसे | फिर इस पिंडाजन को नाशक द्रव्यों के काढे के साथ घी से चौ. छाया में सुखाकर बिद्ध नेत्रमें लगावे । यह गुना दूध और पद्म कादिगण का कल्क डाल | दृष्टिको प्रफुल्लित करनेवाला और बलकारक है कर पाकविधि से घृत पकाकर आश्चोतन अन्य प्रयोग । के काम में लाये। स्रोतोजविद्यमशिलांबुधिफेनतक्षिणसिरामोक्षादि ॥ रस्यैव तुल्यमुदितं गुणकल्पनाभिः । सिरां तथानुपशमे स्निग्धस्विन्नस्य मोक्षयेत् । अर्थ-सुर्मा, मुंगा, मनसिल और समुमंथोक्तां च क्रियां कुर्याव्यधे रूढेऽजनं मृद! द्रफेन इन सब द्रव्यों को बकरी के दूधमें ___ अर्थ-उपर कही हुई बिधियों से वेदना पीसकर पूर्ववत् पिंडांजन फरे । यह भी शांत न होने पर रोगीको स्निग्ध और स्विन्न । पूर्वोक्त गुणविशिष्ट होता है। करके उसकी सिरा को खोल दे, तथा गंथ- | इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाष टीरोग में कही हुई चिकित्सा काममें लावै । कान्वितायां उत्तरस्थाने लिंगनाश. सिराव्यधका घाव सूखजाने पर अंजन लगावै। विद्ध नेत्र में वर्ति ॥ प्रतिषधं नाम चतुर्दशोऽध्यायः । आढकीमूलमरिचहरितालरसांजनैः ।। विशेऽक्षिणसगुडावर्तिर्योज्यादिव्यांबुपषिता. . . . .। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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