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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९३) अष्टांगहृदय । अ. ९ अर्थ-मूत्रद्वार के दोषसे अथवा कुपित | के जव वायुसे उदावृत अर्थात् पीछे को वायु के द्वारा आक्षिप्त हुआ थोडासा बचा | लौटाया हुआ पुरीष मूत्रस्रोत के रोंओर हुआ मूत्र वस्ति, अथवा नालमें अथवा आजाता है तब विष्टा से मिला हुआ मूत्र उपस्थ की मणि में स्थित होकर थोडा २ | पुरीष के समान दुगंधित होकर निकलता दर्द करता हुआ अथवा बिना दर्द कियेही है, इसे विविघात कहते हैं। निकलता है । इसे मूत्रोत्संग कहते हैं । उष्णबात का लक्षण । इस रोग में विच्छिन्न बचे हुए मूत्रसे उपस्थ | पित्तव्यायामतीक्ष्णोष्णभोजनाध्वातपादिभिः - में भारापन रहता है । प्रवृद्धं बायुना क्षिप्तं बस्त्युपस्थार्तिदाहबत् । मूत्रं प्रवर्षयेत्पीतं सरक्तं रक्तमेब बा। मूत्रग्रंथि का स्वरूप। उष्णं पुनःपुनः कृच्छ्रादुष्णवात बदति तम् । अतस्तिमुखे वृत्तः स्थिरोऽल्पः सहसा- | अर्थ-व्यायाम, तीक्ष्ण और उष्णवीर्य ___ भवेत् ।। भोजन, अधिक मार्ग चलना, और धूपका अश्मरतुिल्यरुक् ग्रंथिर्मूत्रग्रंथिः स उच्यते ॥ अर्थ-वस्ति के मुखके भीतरवाले भाग अत्यन्त सेवन इन सब हेतुओंसे कुपित हु आ पित्त वायु द्वारा आक्षिप्त होकर वस्ति में अकस्मात् एक छोटीसी गोल और कठोर गांठ होजाती है जिसमें भश्मरी के समान और उपस्थेंद्रियमें वेदना और जलन उत्पन्न | करता हुआ पीला, लाल, वा केवल लाल उवेदना होती है, इसे मूत्रग्रन्थि कहते हैं। ष्ण मूत्र बार बार वडी कठिनता से निकमूत्रशुक्र का लक्षण । मृत्रितस्य स्त्रियं यातो वायुनाशुक्रमुद्धतम्। लता है । इसे उष्णवात कहते हैं। स्थानाञ्चयुतंमुत्रयतःप्राकू पश्चाद्वाप्रवर्तते। मूत्रक्षयका स्वरूप । भस्मोदकप्रतीकाशं मूत्रशुक्रं तदुच्यते। | रूक्षस्य क्लांतदेहस्य वस्तिस्थौ पित्तमारुतौ । अर्थ-मत्रोत्सर्ग के वेग से युक्त मनुष्य मूत्रक्षयं सरुग्दाहं जनयेतां तदाह्वयम्। ४७ जब स्त्री संगम में प्रवृत होता है तब वायु अर्थ-रूक्ष और क्लांतदेहवाले मनुष्यकी द्वारा उद्धत शुक्र अपने स्थानसे प्रचलित , वस्तिमें स्थित पित्त और वात कुपित होकर होकर मूत्र करने से पहिले वा पीछे निक- मूत्रका क्षय करते हैं । इस रोगमें वेदना और लता है और उसका रंग भस्म मिले हुए ! दाह अधिक होती है । इस रोगका नाम मूजलके सदृश होता है, इसको मूत्रशुक्र | त्रक्षय है। कहते है। मूत्रसाद का स्वरूप । विविधात का लक्षण | .. पित्तं कफो द्वावपि बा संहन्यतेऽनिलेन च । रुक्षदुर्बलयोर्वातादुदावृत्तं शकृद्यदा ॥३३॥| कृच्छ्रान्मूत्रंतदा पीत रक्तं श्वतं धनं सृजेत्। मूत्रस्रोतोऽनुपति संसृष्ट शकृता तदा। | सदाहं रोचनाशंखचूर्णवर्ण भवेच्च तत् । मूत्रं बितुल्यगंधं स्याद्विविघातं तमादिशेत् | शुष्कं समस्तबर्ग वा मूत्रसाई बदति तम् । अर्थ-रूक्ष और दुर्बल देहवाले मनुष्य । अर्थ-यदि पित्त वा कफ अथवा दोनों For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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