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निदानस्थान भाषाटीकासमेत ।
मूत्रमें रुकावट, बेदना और खुजली ये उपद्रव उपस्थित होजाते हैं । कभी ऐसा भी होता हैं कि वह वायु वस्तिको अपने स्थानसे थ्युत करके उसका मुख ऊपर को करदेती है जिससे वह गर्भके सदृश स्थूल और चंचल होजाती है, ऐसा होनेसे वेदना, जलन, स्पंदन (सूत्रका धीरे धीरे झरना ), और उद्वेष्टन ये उपद्रव उपस्थित होते हैं । मूत्र बूंद बूंद करके टपकता है परन्तु हाथ से दावने पर धार बांधकर निकलता है | यह बात - वस्ति कहलाती है, इसके दो भेद है इनमें से पहिला अर्थात् वस्तिके मुखको रोकनेवाला दुस्तर है और दूसरा अर्थात् वस्ति का मुख ऊपर को करनेवाला अत्यन्त कृच्छ्रसाध्य है, क्योंकि इसमें वायुका प्रकोप विशेष होता है ।
वाताष्ठीला का लक्षण | शकृन्मार्गस्य बस्तेश्च वायुरंतरमाश्रितः २३ अष्ठीलाभं घनं ग्रंथि करोत्यचलमुन्नताम् । वाताष्ठीलेति
साऽऽमानविण्मूत्रानिलसंगकृत् २४ ॥ अर्थ - गुदा औरं वस्तिके बीच में स्थित होकर वायु अष्टीला के सदृश एक गांठ पैदा कर देती है जो घन कठोर ) अचल और ऊंची होती है, इसीको वाताष्ठीला कहते हैं, इससे अफरा तथा विष्टा, मूत्र और अधोवायु का अवरोध होजाता है ।
वातकुंडलिका का लक्षण |
विगुणः कुण्डलीभूतो यस्तौ तीव्रव्यथोऽनिलः आविश्य मूत्रंभ्रमति सस्तभोद्वेष्टनगरिवः २५ मूत्र मल्पाल्पमथवा विमुंचति शकृत्सृजन् । वातकुण्डलिकेत्येषा
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अत्यन्त तीव्र वेदना को उत्पन्न करके वस्ति में प्रविष्ट होकर मत्रको क्षुभित करदेताहै, जिससे स्तब्धता, उद्वेष्टन और भारापन पैदा होजाता है और मलके ब्यागने के साथ साथ थोडा २ मूत्र उतरता है । इस रोग को वातकुंडलिका कहते हैं । मूत्रातीत के लक्षण ।
मृत्रं तु विधृतम् चिरम् ॥ २६ ॥ न निरेति विबद्धम् वा मूत्रातीतं तदल्परुक् ।
अर्थ-बहुत देर तक रोका हुआ मूत्र नहीं निकलता है अथवा पवन के साथ धीरे धीरे निकलता है जिसमें किसी प्रकार की वेदना नहीं होती है इसे मूत्रातीत कहते हैं ।
मूत्रजठर का स्वरूप । विधारणात्प्रतिहतं वातोदावर्तितं यदा२७ ॥ नामेरधस्तास्तादुदरं मूत्रमापूरयेत्तदा । कुर्यात्तीव्ररुगाध्मानमपतिमलसंग्रहम् २८ ॥
तन्मूत्रजठरम्
अर्थ-मूत्र के वेग को रोकने से प्रतिहत हुआ मूत्र अथवा वायु से उदावर्तित ( पीछे को घुमाया हुआ ) मूत्र जब नाभि के नीचे उदर में भरजाता है तब तीव्र वेदना, आध्मान, अपक्ति ( अन्न का नं पचना ) और मल का संग्रह करता है । इसे मूत्र कहते हैं ।
मूत्रोत्संग का स्वरूप |
छिद्रवैगुण्येनानिलेन वा । आक्षिप्तमल्पं मुत्रं तु बस्तौ नालेऽथवा मणी स्थित्वा स्रवेच्छनैः पश्चात्स्वरुजम्
वाऽथवाऽरुजम् ।
अर्थ- कुपित वायु गोलाकार घूमता हुआ | सूत्रोत्संगःस विच्छिन्नतच्द्वेषगुरुशेफसः ॥
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