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( ३९४ )
अष्टांगहृदप |
उक्त ममरियोंकी बालकों में उत्पत्ति | | है | इसके उत्पन्न होनेसे वस्तिमें शूलवत्
वेदना, मूत्रकृच्छ, और अंडकोष में सूजन ये सब उपद्रव उपस्थित होते हैं | अश्मरी के उत्पन्न होते ही इसमें शुक्र आकर संचित होता रहता है और यदि अंडकोष और उपस्थेन्द्रिय के बीच में हाथ से दबाया जाय तो विलीन होजाता है ।
शर्करा का लक्षण |
अश्मर्येव च शर्करा ॥ १८ ॥ अणुशावायुनाभिन्ना सात्वस्मिन्ननुलोमगे । निरेति सहमूत्रेण प्रतिलोमे विवध्यते १९ ॥
अर्थ- जब वायुद्वारा अश्मरी के बहुत छोटे छोटे सूक्ष्म खंड होजाते हैं, तब वही पथरी शर्करा कहलाती है ( हकीमलोग इसे रेत कहते हैं यह नदी की बालू के सदृश होती है ) तथा वायुके अनुलोम में मूत्र के साथ बाहर निकल आती है और प्रतिलोम में वहीं रुकजाती है बाहर नहीं निकलती है । परन्तु अश्मरी वायुके अनुलोमगामी होनेपर भी बाहर नहीं निकलती है ।
एता भवंति बालानां तेषामेव च भूयसा । आश्रयोपचयाल्पत्वाग्रहणाहरणे सुखाः १५ ॥
अर्थ - उक्त तीनों प्रकार की अश्मरी बहुधा बालकों के हुआ करती है क्योंकि दिन में सोने के अभ्यासी होते हैं तथा अधिक भोजन करते हैं और इनको ठंडी चिकना मीठा भोजन प्रिय लगता है । बालकों की अश्मरी सुखपूर्वक बडिशादि यंत्र द्वारा ग्रहण और अस्त्रादि द्वारा निकाजासकती है क्योंकि बालकों के अश्मरी का आधार और वृद्धि थोडे होते हैं । बडी अवस्थाबालों के आश्रय और उपचय बडे होते हैं इसीलिये उनके ग्रहण और आहरण दुःख होता है ।
में
शुक्राश्मरी की उत्पत्ति ।
शुक्राश्मरी तु महतां जायते शुक्रधारणात् । स्थानाच्च्युत्तममुक्तं हि मुष्कयोरतरेऽनिलः शोषयत्युपसंगृह्य शुक्रम् तच्छुष्कमश्मरी । वस्तिरुक्कच्छ्रमूत्रत्वमुष्कश्वयथुकारिणी १७ तस्यामुत्पन्नमात्रायां शुक्रमेति विलीयते । पीडिते त्ववकाशेऽस्मिन्
अर्थ-बडी अवस्था वाले मनुष्यों के ही शुक्राश्मरी होती है, यह शुक्र के प्रभावसे बालकों के नहीं होती है 1 मनुष्य जत्र मैथुन की इच्छा करता है तब उसका वीर्य अपने स्थान से चलित होजाता है परंतु मैथुन के अभाव से बाहर नहीं निकलने पाता है तब उस दशा में वायु उसे चारों ओर से खेंचकर पुंजननेन्द्रिय और अंडकोषों के बीच में इकट्ठा करती है और वहीं सुखा देती है यह सूखा हुआ शुक्रही शुक्राश्मरी कहलाती
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श्र० ९
वातवस्ति का लक्षण |
मूत्रसंधारिणः कुर्याद्रद्ध्वा वस्तेर्मुखं मरुत् । मूत्रसङ्गम् रुजं कण्डूं कदाविश्व स्वधामतः ॥ प्रच्याप्य वस्तिमुद्वृत्तं गर्भाभं स्थूलविप्लुतम् करोति तत्र रुग्दा हस्यंदनोद्वेष्टनानि च २१ ॥ बिंदुशश्च प्रवर्तेत मूत्रं वस्तौ तु पीडिते । धारया द्विविधाऽप्येष वातबस्तिरिति स्मृतः दुस्तरो दुस्तरतरो द्वितीयः प्रवलानिलः ।
अर्थ- जो मनुष्य मूत्रके वेगको रोकता है, उसकी वस्तिगत वायु कुपित होकर वस्ति । अर्थात मूत्राशय के मुखको रोक देती है इससे