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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० २७ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । [२२३) - - __ पादसिरा व्यध । होने पर थोडी देर स्राव होता है । अच्छी पादे तुसुस्थितेऽधस्तज्जानुसंधेर्निपीडिते। तरह विद्ध न होने पर तेल और चूर्ण लगाढं कराभ्यामागुल्फं चरणे तस्य चोपरि। द्वितीये कुंचिते किंचिदारूढे हस्तबत्ततः॥ गाने से शब्द करती हुई भरती है । आत. बध्धाविध्येत्सिराम् इत्यमनुक्तेष्वपिकल्पयेत् । विद्ध होने पर रुधिर की धारा वेग से निकतेषु तेषु प्रदेशेषु तत्तयंत्रमुपायवित् ॥ ३२॥ लती है और कष्ट से बंद होती है। अर्थ-पांवकी सिराको इस तरह वेधते ___रक्तस्राव न होने के हेतु । हैं कि जिस पांवमें फस्दा खोलनी हो उसको । भीम यंत्रशथिल्यकुंठशस्त्रातितृप्तयः॥ धरती पर अच्छी तरह टिकवाकर जानु की क्षामत्ववेगितास्वेदा रक्तस्याऽनुतिहतेवः । संधिसे टकने तक हाथसे अच्छी तरह मर्दन । अर्थ-भय, मूछों, बंधन का ढीला करै और उस पविपर दूसरे पांव को कुछ होजामा, भोतरा शस्त्र, अतिभोजन,दुर्बलता सुकडवाकर रखदे फिर हस्तसिरी बेधन की मलमूत्रका वेग और पसीने न लेना। इन तरह इस जगह भी वेध्यस्थान से चार अंगु- हेतुओं से रक्तस्राव नहीं होता है । इसलिये ल ऊंची पट्टी बंधवादे । रक्तस्राव में इनका परित्याग कर देना __इसी तरह उपायमें कुशल वैद्यको उचि त है कि और और स्थानों की फस्द खोलने सम्यगसम्यक् सावमें कर्तव्य । . के लिये यथायोग्य यत्रोंकी कल्पना अपनी असम्यगने नवति वेल्लव्योपनिशानतैः३६॥ बुद्धि से करता रहे। सागारधूमलवणंतैलैर्दिह्याच्छिरामुखम् । मांसलदेशमें ब्रीहिमुखयंत्र । सम्यक्प्रवृत्ते कोष्णेन तैलेन लवणेन च ३७ मांसले निक्षिपेद्देशे ब्रीवास्थं व्रीहिमात्रकम्। ___अर्थ-रुधिर का स्राव अच्छी तरह न यवार्धमस्थनामुपरिसिरांविध्यन्कुटारिकाम होने पर बायबिडंग, त्रिकुटा, हलदी, तगर अर्थ-अत्यन्त मांसयुक्त अंगपर व्रीहिमुख | घर का धूआं, लवण और तेल इनको मिला शस्त्रको व्रीहिके समान और अस्थिके ऊपर कर नसके मुख पर लेप करदे । कुटारिका शस्त्रको आधे जौके समान प्रविष्टं सम्यक् स्त्राव होने पर कुछ गरम जल करके सिराका वेधन करै । तेल और नमक का लेप करदे । - अतिविद्धाविद्धके लक्षण । दृषितरक्तका स्राव । सम्याग्विद्धे नवेद्धारां यंत्रे मुक्त तु न स्रवेत्। अल्पकालं वहत्यल्पं दुर्विद्धा तैलचनैः३४ अग्रे स्रवति दुष्ठात्रं कुसुभादिव पीतिका । सशब्दमतिविद्धा तु स्रवेदुःखेन धार्यते । अर्थ-जैसे लाल और पीला मिले हुए - अर्थ-सिराके अच्छी तरह विधने पर कसूम के फूल से पहिले पीला रंग निकलता रुधिर की धारा निकलती है और बंधन खु । है, इसी तरह बिगडे हुए और शुद्ध रक्त ल, जानेपर धारा बंद होजाती है, अल्पविद्ध में से पहिले बिगडा हुआ रुधिर निकलत हो। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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