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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२२४) अष्टांगहृदय । 'अं०२७ शुद्ध रक्तका अस्राव । त्रिदोष दूषित रक्त मलीन और गाढा सम्यक्तुत्य स्वयं तिष्ठेच्छुद्धं तदिति होता है तथा इसमें तीनों दोषों के पूर्वेक्त नाहरेत् ॥ ३८ ॥ अर्थ-जब रुधिर अच्छी तरह झर लेता । लक्षण भी रहते हैं। है और बिना तेल चूर्ण के ही स्वयं रुक अशुद्ध रक्त के साव का परिमाण । जाता है तब जान लेना चाहिये कि अब .. | अशुद्धौ बलिनोऽन्यत्रं नप्रस्थानावयेत्परम् बिगडा हुआ रुधिर नहीं रहा है । शुद्ध | अतिसुतौ हिमृत्युःस्यादारुणा बा चलामयाः। | अर्थ-बलवान् मनुष्य का भी एक प्रस्थ रक्त का स्राव कदापि न करावै क्योंकि यही | अर्थात् दो सेर से अधिक स्राव नहीं कराना जीवन का हेतु है। ___ मूर्छा में यंत्र का खोलना । । चाहिये ( फिर निर्बल का तो कहना ही यंत्र विमुच्य मूर्छायां वीजितेव्यजनैः पुनः। क्या है ) क्योंकि अतिस्राव से दारुण बात सावयेन्मूर्छति पुनस्त्वपरास्त्रयहेऽपि वा३९ रोग यहां तक कि मत्युपर्यन्त होजाती है । ___ अर्थ-जो मूच्छो होजाय तो बंधन खोल अतिसत में उपाय। कर पंखेकी हवा करके रोगी को समाश्वा-तत्राऽभ्यंगरसशीररक्तपानानि भेषजम् । सित करै और फिर फस्द खोले । जो मूर्छा अर्थ-अतिस्नाव में अभ्यंग, मांसरस, फिर होजाय तो उस दिन स्राव न कराके दूध और रक्तपान हितकारक हैं । एक वा दो दिनके अंतरसे स्राव करावै । वातादि दोषों से रक्त के लक्षण | रक्तस्राव का पश्चात्कर्म । वाताच्छयाचाहणं रूक्ष वेगलाध्यच्छकोनिलम स्रते रक्ते शनैर्यत्रमपनीयं हिमाबुना। ४३ । पित्तात्पीतासितं विनमस्कंधौण्यात्त प्रक्षाल्य तैलप्लोतातं बंधनीय सिरामुखम्। चंद्रकम् ॥४०॥ अर्थ-रक्तस्राव होचुकने के पीछे बंधन फफास्निग्धमसृक्पांडुतंतुमत्पिच्छिलं धनम् को धीरे धीरे खोलकर ठंडे जल से नस के संसृष्टलिंग संसर्गाविदोष मलिनाविलम४१ / अर्थ-बातदूषित रुधिर श्याव और लाल | मुखको धोकर ऊपरसे तेलकी पट्टी बांधदे । रंग का रूखापन लिये होता है यह वेग से पुनः खाव। निकलता है तथा निर्मल झागदार होताहै। अशुद्धं स्रावयेद्भूयः सायमहन्यपरेऽपि वा पित्तदूषित रक्त पीला वा काला, आम / स्ने होपस्कृतदहस्य पक्षाद्वा भृशदूषितम् । गंधयुक्त, उष्णता के कारण पतला और ____ अर्थ-स्राव के पीछे भी यदि दुष्ट रु. मोर की पूंछ की चन्द्रकाओं से युक्त होता है । धिर के लक्षण दिखाई दें तो उसी दिन कफदूषित रक्त स्निग्ध, पांडवर्ण. तन्त | सायंकाल के समय वा दूसरे दिन फिर युक्त, पिच्छिल और गाढा होता है। अशुद्ध रुधिर को निकाल डाले । अथवा दो दोषों से दूषित रक्त दो दो दोषोंके रोगी की देह को स्नेह द्वारा स्निग्ध करके लक्षणों से युक्त ह्येता है। | एक पखवारे पीछे दूषित रक्त का स्रावकरें। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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