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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. २७ सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । [२२५] सावमें संशयका प्रतीकार। करना चाहिये । लोध, प्रियंगु, पतंग,उरद, किंचिद्धि शेषे दुष्टास्नेनैव रोगोऽतिवर्तते ॥ | मुलहटी, गेरू, खीपडा, अंजन, रेशमीवस्त्र सशेषमप्यतो धार्य न धातिप्रतिमाचरेत् । | की राख, तथा बटादि दूधवाले वृक्षों की अर्थ-जो विगडा हुआ रुधिर थोडा रह | छाल और अंकुर का चूर्ण । इन सबको भो जाय तो उस दूषित रक्तमे होने वाले ब्रणके मुख पर लगावै । तथा पमकादि रोग उत्पन्न नहीं होते हैं । इसलिये थोडा गणोक्त शीतल द्रव्यों के क्वाथका पानकरे। सा दूषितरक्त रहा आवे तो कुछ हानि नहीं अन्य उपाय । क्योंकि रुधिर प्राणों का आधार है, इसलिये तामेववासिरांबिध्येयधात्तस्मादनंतरम् । दृष्ट रक्तका भी अतिस्त्राव अच्छा नहीं है* | सिरामुखं च त्वरित दहेत्तप्तशलाकया । शषरक्त का उपाय ।। अर्थ-अथवा पहिले वेधस्थान से कुछ करे गादिभिः शेषम् प्रसादमथ वा नयेत्॥ ही हटकर उसी सिरा को फिर बेधे या लोहे शीतोपचारपित्तास्रक्रियाशुद्धिविशोषणैः । दुष्ट रकम्नुदिक्कमेवमेवप्रसादयेत् ॥ ४७॥ का गरम शलाका स सिरा के मुखका ___ अर्थ-साव से बचेहुए दुष्ट रक्तको फस्द | दग्ध करदे । लगाकर न निकाले किन्तु सींगी, तूंवी, रक्तसाव के पीछे का कर्म । घटिका आदि से निकाले । अथवा शीतल उन्मार्गगा यंत्रनिपीडनेनउपचार, पित्तरक्तनाशिनी क्रिया, वमन स्वस्थानमायांति पुनर्न यावत्। दोषाः प्रदुष्टा रुधिरं प्रपन्नाविरेचनादि शुद्धि, वा लंघनरूप विशेषण स्तावद्धिताहारविहारभाक्स्यात् ५१ ॥ द्वारा उस अनुदिक्त अर्थात् बढे हुए रक्त को अर्थ-यंत्रके बंधनसे अपने मार्ग को प्रसन्न अर्थात् कलुषतारहित करै ।। छोडकर अन्य मार्ग में गये हुए प्रदुष्ट दोष रक्त न रुकने पर स्तंभिनी क्रिया । जब तक अपने अपने स्थानमें न आ तब रते त्वतिष्ठति क्षिप्रस्तंभनीमाचरोत्कियाम्। तक हितोत्पादक आहार विहार का सेवन रोधप्रियंगुपतंगमाषयष्टयाह्वगैरिकैः ४८ ॥ उचित है। मृत्कपालांजनाममषीक्षीरित्वगंकुरैः। विचूर्णपद्माणमुखं पनकादिहिम पिवेत् ॥ अग्निकी रक्षाकी भावश्यक्ता । अर्थ-जो रक्तस्राव न रुके तो तुरंतही नात्युष्णशीतं लघु दीपनीयनिम्नलिखित स्तंभिनी क्रिया का प्रयोग रक्तेऽपनीते हितमन्नपानम् । तदा शरीर हनवस्थितास्त्र.. + सुश्रुत में कहा है "रक्तं संशेषदोषंतु मग्निर्विशेषादिति रक्षणीयः॥५२॥ कुर्यादापि विचक्षणः। न चातिप्रचुतं कुर्यात् अर्थ-रक्तके निकलने के पीछे न बहुत शेयं संशमनैर्जयेदिति ।,, अर्थात् दूषितरक्त थोडा सा रहने देना चाहिये उसका अति गरम, न बहुत ठंडा, हलका और अग्नि-- नाव न करै । बचे हुए को संशमनादि संदीपन अन्नपान हितकारी होता है, क्यों औषधों से सुधारले। कि तत्काल ही शरीरमें रक्त चलितवृत्ति २९ For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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