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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२६) अष्टांगहृदये । अ० २८ होजाता है । यह रक्त शरीर का आधार है, | होती है । यथा, वक्रगति, ऋजुगति, तिरक्तका आधार पित्त है और पित्त का आ- र्यक्गति, ऊर्ध्वगति और अधोगति । धार अग्नि है, इसलिये हितकारी अन्नपान शल्यके जाननेकी रीति । से अग्निकी विशेष रूपसे रक्षा करनी ध्यामं शोफ रुजावंतं स्रवतं शोणितं मुहुः १॥ चाहिये. क्योंकि अग्निही रक्तकी उत्पत्तिका | अभ्युद्गतं बुद्बुदवत्पिटिकोपचितं व्रणम् । मूलकारण है। मृदुमांसं विजानीयादतःशल्यं समासतः ॥ अर्थ-शरीर के अबयवमें उस व्रण के रोगों के स्वस्थानमें जाने के लक्षण । प्रसन्नवणेंद्रियमिद्रियार्था भीतर शल्य जानना चाहिये जो सामान्य निच्छंतमव्याहतपक्तवेगम् । रीतिसे श्यामवर्ण, सूजनयुक्त, वेदनायुक्त, सुखान्वितं पुष्टिबलोपपन्न बारवार रुधिर झरता हो । फूलकर ऊंचेको विशुद्धरतं पुरुष वदंति ॥ ५३॥ उठा हुआ । छोटी छोटी फुसियोंसे व्याप्त अर्थ-जिस व्यक्तिका रक्त विशुद्ध हो | तथा कोमल मांससे युक्त हो । जाता है उसके शरीर का रंग और इन्द्रियां त्वचा और मांसगतशल्यके लक्षण । संपूर्ण निर्मल होजाती हैं, इन्द्रियों के दर्शन | विशेषात्त्वग्गते शल्ये विवर्णः कठिनायतः । स्पर्शनादि विषयों में अभिलाषा उत्पन्न होती | शोको भवति मांसस्थे चोष शोफो विवर्धते। है, अग्निमें पाचनशक्ति बढजाती है तथा पीडनाक्षमता पाकः शल्यमार्गो न रोहति । ___ अर्थ-जो शल्य त्वचामें हो तो विवर्ण, सुख, स्वच्छन्दता, शरीर में पुष्टाई और कठोर और लंबी सूजन होती है । मांसमें बलका संचय होता है। प्रविष्ट होगया हो तो सर्वांग में तीन दाह, इतिश्री अष्टांगहृदये भाषाटीकायां सूजनका बढाव, असह्य दर्द, पाक होता है ... सप्तविंशोऽध्यायः । तथा व्रणका मुख पुरता नहीं है । पेशी, स्नायु और सिरागतशल्य । पेश्यतरगते मांसप्राप्तवच्छ्वय) विना ४॥ अष्टाविंशोऽध्यायः । | आक्षेपः स्नायुजालस्य संरंभस्तंभवेदनाः। स्नायुगे दुर्हरं चैतत् सिराध्मानं सिराश्रिते ॥ अर्थ-पेशीगतशल्य के लक्षण भी मांस अथाऽतः शल्याहरणाविधिमध्याय- गतशल्य के से होते हैं । अंतर यही है कि व्याख्यास्यामः। इसमें सूजन नहीं होती है । स्नायुगत शल्य अर्थ-अब हम यहां शल्यके निकालने । में सब नसें खिंच जाती है । क्षोभ, स्तब्धता की विधि वाले अध्याय की व्याख्या करेंगे। | । और बेदना होती है, यह शल्य बडी कठि शल्योंकी पांचगति । "वक्रर्जुतिर्यगूर्वाधाशल्यानां पंचधा गतिः । नता से निकलने में आता है । शिरागतशल्य __ अर्थ-शल्यों की गति पांच प्रकार की में नसें फूल जाती हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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