SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 694
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० १२ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । १९९७) चौथाई शेष रहै, तब उतार कर छान ले, | करते करते जब लोहे के पत्र नष्ट होजाय ठंडा होने पर दो प्रस्थ शहत मिलाकर | तव समझना चाहिये कि औषध तयार होएक कलश में भरकर पन्द्रह दिन तक रक्खा | गई । इस दवा का नाम अयस्कृति है । रहने दे, तदुपरांत इसका सेवन करने से | यह औषध रोधासव की अपेक्षा भी अधिप्रमेह, अर्श, श्वित्रकुष्ठ, अरुचि, कृमिरोग, | कतर गुणकारक है । पांडुरोग, ग्रहणीदोष और स्थूलता ये सब प्रमेह में उद्वर्तनादि। रोग दूर होजाते हैं, यह रोधासव है। रूक्षमुद्वर्तनं गाढं व्यायामो निशि जागरः॥ __ अयस्कृति । यचाऽन्यच्छ्लेष्ममेदोघ्नं बहिरंतश्च तद्धितम् साधयेदसनादीनां पलानां विंशतिं पृथक् ॥ | अर्थ-प्रमेहरोग में रूखा और गाढा द्विवहेऽपां क्षिपेत्तत्र पादस्थे द्वे शते गुडात् | उवटना,व्यायाम, रात्रिजागरण, कफनाशक क्षौदाढकाध पलिकं वत्सकादि च कलिकतम् और मेदनाशक औषध वाह्य वा आभ्यंतर तत्क्षौद्रपिप्पलीचूर्ण प्रदिग्धे घृतभाजने। न प्रयोग द्वारा हितकर होती है। निकाहोती है। स्थित दृढे जतुसृते यवराशो निधापयेत् ॥ खदिरांगारतप्तानि बहुशोऽत्रं निमज्जयेत् । प्रमेह पर रसायन । तनूनि तीक्ष्णलोहस्य पत्राण्यालोहसंक्षयात | सुभावितां सारजलैस्तुलां पीत्वाअयस्कृतिः स्थिता पीता पूर्वस्मादधिका गुण: शिलोद्भवात् ॥ ३३ ॥ अर्थ-असनादि गणोक्त द्रव्यों में से हर | सारांबुनैव भुंजानः शालिजांगलजै रसैः। | सर्वानभिभवेन्मेहान् सुवहूपद्रवानपि ॥ एक २० पल लेकर आठ द्रोण जल में गडमालार्बुदग्रंथिस्थौल्यकुष्ठभगदरान्। पकावै जब चौथाई शेष रहजाय तव उतार | कृमिश्लीपदशोफांश्च परं चैतद्रसायनम् ॥ कर छान ले, ठंडा होने पर २०० पल । अर्थ- असन और खैरसारादि वृक्षों के गुड, शहत आधा आढक, वत्सकादिगणोक्त / काढे में एक तुला शिलाजीत को भावना द्रव्य प्रत्येक एक एक पल पीसकर उक्त देकर उक्त द्रव्यों के काथ के साथही सेवन काथ में डाल दे । फिर एक घडे के भीतर | करै तथा इसी काढे में पकाये हुए जांगल शहत में पिसी हुई पीपल मिलाकर लेप | जीवों के मांसरस के साथ शाली चांवलों करदे उस घडे के चारों और लाख पुती का भोजन करै तौ अनेक उपद्रवों से युक्त हो और दृढ हो इस घडेको अमृतवान सब प्रकार के प्रमेह दूर होजाते हैं, तथा कहते हैं । इस घडे में उक्त काढा भरकर | गंडमाला, अर्बुद, ग्रंथि, स्थूलता, कुष्ठ,भगंमुख बंद करके जौ के ढेर में गाढ देवै। दर, कृमिरोग, स्लीपद, और शोफ रोगों का तदनंतर एक प्रस्थ लोहे के बहुत पतले | भी शमन होजाता है, यह औषध बडी पतले पत्र बनवालेवै और इन पत्रों को खै. | रसायन है। रकी लकडी के कोयलों में अत्यंत गरमकर निर्धनप्रमेही का उपाय । करके उक्त घडे में बुझाता है । इस तरह । अधनश्छत्रपादत्ररहितो मुनिवर्तनः । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy