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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५९८) अष्टांगहृदय । अ०१३ योजनानां शतं यायात्खनेद्वा सलिलाशयान् | अर्थ-एलादिगणोक्त द्रव्यों द्वास सिद्ध गोशकून्मूत्रवर्तिर्या गोभिरेव सह भ्रमेत् । किया हुआ तेल ब्रणके रोपण में हित है । ___ अर्थ-निर्धन प्रमेहरोगी को उचितहै कि जूता और छत्री को छोडकर मुनियों की आरग्वधादि का काथ उदवर्तन में,असना | दि वर्गोक्त द्रव्योंका कषाय परिषेक में और बृत्ति का अबलंबन करके सौ योजन तक | वत्सकादि गणोक्त द्रव्यों का काथ खानेपीने पैदल चलै अथवा जलाशयों को खोदे अथवा में श्रेष्ठहै। गोवर और गोमूत्र का सेवन करता हुआ बनमें गौओं को चराता फिरै । पाठादि अवलेह । पाठा चित्रकशाङ्गष्टा सारिवा कंटकारिका . कृशकी औषध । सप्ताहवं कौटजं मूलं सोमवल्कं नृपद्रुमम् । बृहदौषधाहारैरमेदोमूत्रलैः कृशम् ॥ संचूर्ण्य मधुना लिह्यात्तद्वश्चर्ण नवायसम् ॥ .. अर्थ-प्रमेहरोगी यदि कृश होगया हो तो अर्थ-पाठा, चीता, महाकरंज, अनन्तऐसी औषधियों से युक्त आहार द्वारा उसकी मूल, कटेरी, सातला, कुडाकीजड, सफेद पुष्ठि करै जो मेदोवर्दक और मूत्रकारक नहो। खैर और अमलतास, इन सबका चूर्ण करके प्रमेह पिटका की चिकित्सा ॥ शहदके संग चाटे, अथवा नवायस चूर्णको शराविकाद्याः पिटिकाः शोफवत्समुपाचरेत् | शहत के संग चाटे । अपक्का ब्रणबत्पक्काः प्रमेह पर शिलाजीत । अर्थ-जो शराबकादि पिटिका पकी | मधुमहित्वमापन्नो भिषभिः परिवर्जितः। न हो तो सूजनके सदृश और पकगई हों शिलाजतुतुलामद्यात्प्रमहातः पुनर्नवः॥ तो व्रणके समान चिकित्सा करे । ____अर्थ--जो प्रमेहरोगी का प्रमेह मधुमेह पिडिका के पूर्वखर्पमें कर्तव्य। के रूपमें परिणत होगयाहो, और वैद्य चि ____तासां प्राग्रुप एव च ॥ ३८ ॥ कित्सा करना छोड चुकेहों, वह भी यदि सीरिवृक्षांबु पानाय बस्तमूत्रं च शस्यते ।। १०० पल शिलाजीत का सेवन करे तीक्ष्णं च शोधनं प्रायो दुर्विरेच्या हि मेहिनः तो फिर नवीनता को धारण करसकताहै । अर्थ--पिटकाओं की पूर्व रूपावस्थामें हो इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकाबटादि क्षीरवृक्षों का क्वाथ और बकरी का | न्वितायांचिकित्सितस्थानेप्रमेहचि. मत्र पान करोष अथवा तीक्ष्ण विरेचन देकर कित्सितं नाम द्वादशोरोगी को शुद्ध करे क्योंकि प्रमेहरोगी को ऽध्यायः ॥ १२ ॥ जुलाव कठिनता से लगताहै। .. . तैलादि विधि। . तैलमेलादिना कुर्याद्गणेन ब्रणरोपणम् । त्रयोदशोऽध्यायः। उद्वर्तने कषायं तु वर्गणारग्वधादिना ॥ अथाऽतो विद्रधिवृद्धिचिकित्सितं परिषेकोऽसानाद्येन पानान वत्सकादिना ।।... व्याख्यास्यामः। - For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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