SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 696
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १३ चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । [१९९ } अर्थ-अव हम यहां से विद्रधि बृद्धि । हलदी, त्रिफला और मुलहटी इन सव द्रव्यों चिकित्सित नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । का कल्क तथा जल और दूध के साथ पाक विद्रधि की चिकित्सा। की रीतिसे घीको पकाकर लेपकरै, अथवा विद्रधि सर्वमेवामं शोफवत्समुपाचरेत् । वट आदि वृक्षों के पत्ते, छाल और फल प्रततं च हरेद्रक्तं पक्के तु वणवक्रिया॥१॥ " इनके साथ सिद्ध किये हुए घी से व्रण का ___अर्थ-सव प्रकारकी विना पकी हुई वि रोपण करे। द्रधियों की चिकित्सा सूजन के सदृश कर नी चाहिये, तथा निरंतर रक्तको निकालता कफजविद्रधि । रहे, विद्रधि के पकजाने पर ब्रणके समान कफजं पुनः ॥ ५॥ आरग्वधांबुना धौतं सक्तुकुंभनिशातिलैः। चिकित्सा करै। लिंपेत्कुलत्थिकादतीत्रिवृच्छयामाग्नितिल्वकैः वातजविद्रधि की चिकित्सा। ससैंधवैः सगोमूत्रैस्तैलं कुर्वीत रोपणम् । पंचमूलजलैधौतं वातिकं लवणोत्तरैः। __अर्थ-कफज बिद्रधिको अमलतास के भद्रादिवर्गयष्टयाहृवतिलैरालेपयेद्रणम् । २॥ ___ अर्थ-वातज विद्रधिको पंचमूलके क्वाथ पानी से धोकर सत्तू, गूगल, हलदी और से धोकर भद्रदार्यादिगण, मुलहटी, तिल तिल का लेप करै । इसी तरह कुलथी, और सेंधानमक इन सवको पीसकर उक्त दंती, निसोथ, श्यामा, चीता, लोध, सेंधाविद्रधि पर लेप करदे । नमक और गोमूत्र इनके साथ तेल पकाकर व्रणरोपणी क्रिया। | व्रण पर लेप करके उसको भरै । वैरेचनिकयुक्तेन त्रैवृतेन विशोध्य च। । रक्तादिजन्य विद्रधि । विदारीवर्गसिद्धेन त्रैवृतेनैव रोपयेत् रक्तातडवे कार्यापित्तविटंधिवलिया अर्थ-वैरेचनिक द्रव्यों से युक्त बृत- अर्थ-रक्तज तथा आगन्तुज ( चोट लनामक घृतसे संशोधन करके विदारी गणो-गने से उत्पन्न ) विद्रधि में पित्त विद्रधि के क्त द्रव्यों से सिद्ध किया हुआ त्रैवृताख्य समान चिकित्सा करनी चाहिये । ... स्नेह लगाकर व्रण का रोपण करै । अंतरविद्रधि में पान । पैत्तिक विद्रधि । वरुणादिगणकाथमपक्केऽभ्यंतरे स्थिते । क्षालितं क्षीरितोयेन लिपेद्यष्टयमृतातिलैः। ऊषकादिप्रतीवापं पूर्वाहणे विदधौ पिबेत् । पैत्त घृतेन सिद्धेन मंजिष्ठोशीरपाका अर्थ-अंतर विद्रधि की अपक्व अवस्था पयस्याद्विनिशाश्रेष्ठायष्टीदुग्धैश्च रोषयेत् । । में वरुणादि गणोक्त द्रयों के काढ़ में ऊन्यग्रोधादिप्रवालत्वक्फलैर्वा ___अर्थ-पैत्तिक बिद्रधि को वटादि क्षीर षकादि का प्रतीवाप देकर पूर्वान्ह में पान वृक्षोंके काढे से धोकर मुलहटी, गिलोय और तिल को पीसकर लेप करदे । तथा अन्य प्रयोग । घृतं विरेचनद्रव्यैः सिद्धं ताभ्यां च. मजीठ, खस, पदमाख, दुग्धिका, दोनों पाययेत्। . करावै। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy