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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९५२) अष्टांगहृदय । अ० ३८ आखविष पर दाह ॥ उक्तरोग में वमन । आखुना दयमानस्य देश कांडेन दाहयेत् । छर्दन नीलिनीकाथैः शुकाख्यांकोल्लयोरपि ॥ दर्पणेनाथवा तीब्ररुजा स्यात्कर्णिकान्यथा। अर्थ-नीलिनी का काथ अथवा कौमा अर्थ-चूहे के काटतही दंशस्थानको तप्त । टोंटी वा अंकोल का काथ पान कराके शलाका वा दर्पण द्वारा दग्ध करदेना । वमन करावै । चाहिये । ऐसा न करने से भयंकर वेदना वमनकारक चूर्ण । कारक कर्णिका पैदा होजाती है । कोशातक्याः शुकाख्यायाः फलं जीमृतकदग्धदंशका विस्राव ।। स्यच। दग्धं विस्रावयेहंशं प्रच्छिन्नं च प्रलेपयेत् । मदनस्य च संचूर्ण्य बध्ना पीत्वा विष वमेत् शिरीषरजनीवत्रकुंकुमामृतवल्लिभिः॥ अर्थ-कडवी तोरई, सिरस, देवताड,इन - अर्थ-दंशको दग्ध और अस्त्रद्वारा के बीज और मेनफल का चूर्ण दही के साथ पान कराके वमन करावै । प्रछिन्न अर्थात् थोडा थोडा खुरचकर उसमें ___ अन्य चूर्ण। सिरस के बीज, हलदी, तगर,कुंकुम और वचामदनजीमूतकुष्ट वा मूत्रपेषितम् ।। गिलोय का लेप करना चाहिये || . पूर्वकल्पेन पातव्यं सौंदुरविषापहम् २२ चूहेका विषनाशक लेप। अर्थ-बच, मेनफल, देवदाली, और कूठ अगारधूममंजिष्टारजनीलवणोत्तमैः।। इनको गोमूत्र में पीसकर दहीके साथ पान लेपोजयत्याखुविषं कर्णिकायाश्च पातनः ॥ करावे । इसके पीनेसे सब प्रकारके चूहोंका अर्थ-गृहधूम, मजीठ, हलदी, सेंधानमक विष दूर हो जाता है । इनका लेप करने से चूहेका विष नष्ट और | उक्त रोगपर विरेचन ।। कर्णिका निपतित हो जाती है । विरेचनं त्रिवृन्नीलीत्रिफलाकल्क इप्यते । . दंशका धौना। | अर्थ-इसमें निसोथ, नील और त्रिफला ततोऽम्लैः क्षालायित्वाऽनु तोयैरनु च. का कल्क देकर विरेचन कराना चाहिये । लेपयेत् । । उक्तरोग में अंजन । पालिदीश्वतकटभीबिल्बमूलगुडूचिभिः॥ | अंजनं गोमयरसो व्योषसूक्ष्मरजोन्वितः २३ अन्यैश्च विषशोफन्त्रैः सिरांवा मोक्षयद्भुतम् अर्थ-त्रिकुटा के चूर्णको महीन पीस__ अर्थ-तदनंतर पहिले कांजी आदि खट्टे । कर गोवरके रसमें मिलाकर आंखमें लगाना पदार्थ से और फिर जलसे धोकर निसोथ, । चाहिये । इससे चूहेका विष दूर हो जाता है श्वेत अपराजिता, बेटगिरी की छाल, और उक्तरोग पर अवलेह । गिलोय द्वारा अथवा विष और शोथनाशक | कपित्थगोमयरसो मधुमामवलेहनम् ।। अन्य किसी औषधद्वारा लेप करे और शीघ्र । अर्थ-कैथ और गोवर के रसमें शहत ही सिरावेध करके रक्तमोक्षण करना चाहिये मिलाकर पीना चाहिये ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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