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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अ० २६ www. kobatirth.org उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । वाताधिक्य में वातनाशक प्रयोग | द्वे पञ्चमूले वर्गश्च वातघ्नो वातिके हितः न्यग्रोधपद्मकाद्य तु तद्वत्पित्तप्रदूषिते । आरग्वधादिः श्लेष्मघ्नः कफे मिश्रस्तु मिश्र के अर्थ - वाताधिक्य में दशमूल और वातनाशक वर्ग हित है । पित्ताधिक्य में न्योI धादि और पद्मकादिगण हित है । कफज में कफनाशक और आरग्वधादिगण हित है । तथा मिश्र दोनों में मिश्रित औषधों का प्रयोग करना चाहिये | व्रण में यथायोग्य औषध । एभिः प्रक्षालनालेप घृततैलर सक्रियाः । वर्तिश्च संयोज्या प्रगे सप्त यथायथम् अर्थ- प्रज्ञावन, आलेपन, घी, तेल, रसक्रिया, चूर्ग और वर्ति इन सातों का यथायोग्य घावमें प्रयोग करना चाहिये । घृत प्रयोग | I मुल जान्वितैः सर्पिः साध्यमनेन सूक्ष्मवदना मर्माश्रिताः "क्लेदिनो गर्भाराः सरुजो वगाः सगतयः शुध्यंति रोहंति च ॥ ६७ ॥“ अर्थ- चमेली के पत्ते, नीम के पत्ते, कुटकी, दारूहल्दी, हल्दी, अनंतमूळ, मजीठ, खसकी जड, कालाधतूरा, नीलाथोथा, हटी, और कंजा, इनके साथ घी पकाकर इस घृतका प्रयोग करनेसे छोटे मुखवाले, मर्माश्रित, क्लेदयुक्त, गंभीर, वंदनावाले और नाडीव्रण शुद्ध होकर भरजाते हैं । इतिश्री अष्टांगहृदयसंहितायां भाषाटीकान्वितायां उत्तरस्थाने वणप्रतिषेधो नाम पंचविंशोऽध्यायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८७१ ) षडूविंशोऽध्यायः । अथाऽतः सद्योब्रणप्रतिषेधं व्याख्यास्यामः। अर्थ - अब हम यहांसे सद्योघावप्रतिषेध नामक अध्यायकी व्याख्या करेंगे । वणजुष्टआठप्रकारके अंग । सद्योव्रणाये सहसा संभवत्यभिघाततः । अनंतैरपि तैरंगमुच्यते जुष्टमष्टधा ॥ १ ॥ घृष्टावकृत्तविच्छिन्नप्रविलंबितपातितम् । विद्धं भिन्नं विदलितं 1 अर्थ - किसी प्रकार की चोट लगने से जो शरीर में सहसा घात्र उत्पन्न हो जाते हैं उन्हें सद्योव्रण कहते हैं । यद्यपि असंख् होते हैं परन्तु मुख्य आठही प्रकार के होते हैं, जैसे घृष्ट, अत्रकृत, विच्छिन्न, प्रबि ंबित जातर्नित्रपटोल पत्रकटुकादावनिशासारिवा. पातितविद्ध, भिन्न, और विदलित । मंजिष्ठाभयसिद्ध तुत्थमधुकैर्नक्काइवबी For Private And Personal Use Only आठों के लक्षण | तत्र घृष्टं लसीकयां ॥ २ ॥ रक्तलेशेन वा युक्तं सप्लोषं छेदनात् स्त्रवेत् । अवगाढं ततः कृत्तं विच्छिन्नं स्यात्ततोऽपि च प्रविलंबि सशेषेऽस्थि पतितं पातितं तनोः । सूक्ष्मास्यशल्य विद्धं तु विद्धं कोष्ठविवर्जितम् भिन्नमन्यद्विदलितं मज्जरक्तपरिप्लुतम् । प्रहारपीडनोत्पेषात्सहारना पृथुतां गतम् अर्थ--इन आटों में हैं जो किसी बस्तुकी रिगड लगने से त्वचा के उडजाने से पैदा होते हैं । इनमें से रक्तमिश्रित स्राव होता रहता है । घृष्टकी अपेक्षा अवगाढ धावको अवष्ट कहते हैं । इससे भी अवगाढ को विच्छिन्न कहते हैं । जिसको rea द्वारा काटने से अस्थिमात्र शेष रहजाय घृष्टवा 1
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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