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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६४०) अवांगहृदय । अ० १६ . स्नेहपानानंतर भोजनविधि। लिये भी प्रायः यही विधि कर्तव्य है । भोज्योऽनमात्रयापास्यन्श्व पिवनपीतवानपि किन्तु शमन के निमित्त स्नेहपान करने में द्रवोष्णमनभिष्यंदिनाऽतिस्निग्धमसंकरम् । विरिक्त की तरह नियम पालन करना चा. उष्णोदकोपचारीस्याब्रह्मचारी क्षपाशयः॥ हिये। अर्थात जैसे विरेचनमें पेयादिका नवेगरोधी व्यायामक्रोधशोकहिमातपान् । | विधान है ऐसेही शमनार्थ स्नेहपान में भी प्रवातयानयानाध्यमाच्याभ्यासनसंस्थितिः। नीचात्युच्चोपधानाहः स्वप्नधूमरजांसिच। वैसाही विधान है। यान्यहानि पिवेत्तानि तावत्यान्यपित्यजेत् ॥ स्नेहपानकी अवधि । सर्वकर्मस्वयं प्रायो व्याधिक्षीणेषुचक्रमः। घ्यहमच्छं मृौकोष्ठे करे सप्तदिनं पिवेत् । उपचारस्तु शमने कार्यः स्नेहे विरिक्तवत् ॥ सम्यस्निग्धोऽथवायावदतःसात्मभिवत्परं : अर्थ-जिस दिन स्नेह पान किया जाय अर्थ-यदि कोष्ठ मृदु हो तो तीन दिन, उससे पहिले दिन अथवा स्नेहपान के दिन ऋर हो तो सात दिन तक स्वच्छ स्नेहपान स्नेहपान करने के पीछे मूंग के यूषादि करना उचित है इसमें केवल यही नियम द्रवयुक्त उष्ण अन्न अथवा केवल पेयादिक | नहीं है, किन्तु जब तक स्निग्धता के लक्षण गरम पतले पदार्थ जो अनभिष्यन्दी अर्थात् अच्छे प्रकार से उपस्थित नहों तब तक कफकारक न हों, जिनमें चिकनाई थोडी स्नेहपान करता रहै । इससे यह बात पडी हो, असंकर ( जिसमें कोई अपथ्य निकली कि सात दिन से आगे भी स्नेहपदार्थ न मिला हो ) ऐसा अन्न बहुत अल्प | पान का विधान है। इस विषयमें वृद्ध मात्रामें भोजन करना चाहिये । जब तक वैद्यों का यह मत है कि सातदिन पीछे स्नेह पान करै तबतक, स्नेहपान पीने से स्नेहपान करना पडे तो एक एक दिन बीच .. आगे के दिनमें और उस दिनभी गरम जल में देकर करै । स्निग्धलक्षणों के प्रकाशित पीधे । स्त्रीसंग न करे, रात्रि में शयन होने पर भी जो स्नेहपान किया जाय तो करै ( इस कहने से दिनमें सौना वर्जित है ) स्नेह सामी हो जाता है अर्थात् अभ्यास में मलमूत्रादि के वेग को न रोके, इसी तरह पडजाता है और इसका फल कुछ भी व्यायाम, क्रोध, शोक, प्रचंडवायु, सवारीमें चढना, रस्ताचलना, अधिक बोलना, बहुत दिखाई नहीं देता । संग्रह में लिखा है कि काल तक आसन पर बैठ रहना, बहुत "सात्मीभूतो हि कुरुते न मानामुदीरणम् नीचे वा बहुत ऊंच तकिये पर सिर धरना, अतियोगेन वा ब्याधीन यांभो ह्यतियोदिनमें सोना, धुंआं और धूल इन सबको जनादिति ।' मध्यकोष्ठ के विषय में संग्रहमें त्याग देना चाहिये । वमनविरेचनादि संपूर्ण | लिखा है कि छः दिन तक स्नेहपान करना कामों में तथा व्याधि से क्षीण मनुष्य के | चाहिये ! 8-01-3 For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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