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मूत्रस्थान भाषाठीकासमेत।
(११९)
स्निग्ध के लक्षण । और तृषा के वेग का रोकना, वमन, पसीना पातानुलोम्यंदीप्तोऽनिर्वामिग्धमसंहतम्।| रूक्ष पान, अन्न और भेषज, तक, अरिष्ट, रहोगः क्लमः .
खल ( व्यंजन विशेष, इसका पहिले वर्णन सम्यक् स्निग्धे रूक्षे विपर्ययः ॥ ३० ॥ अतिस्निग्धे तु पांडुत्वं घ्राणवक्रगुदनवाः।
| हो चुका है ) उद्दालक, जौ,सोंखिया,कोदों, _ अर्थ-मनुष्यके सम्यक् प्रकार से स्निग्ध
पीपल, त्रिफला, शहत, हरड, गोमूत्र, और होने पर वायु अनुलोमन, अग्नि उद्दीप्त, गूगल तथा जिस जिस रोग की जिस जिस मल स्निग्ध और शिथिल होता है तथा स्नेहो
अध्यायमें जो औषध लिखी गई है उनका द्वेग और क्लान्ति उत्पन्न होती है । परन्तु
प्रयोग दोषानुरूप करना चाहिये । रूक्ष होने पर उपरोक्त लक्षणों से विपरीत
विरूक्षण के कृतातिकृत लक्षण ।
विरूक्षणे लंघनवत्कृताऽतिकृतलक्षणम् । होते हैं । अतिस्निग्धं होने पर पांडुत्व
___ अर्थ -सम्यक् कृत और अति कृत लंघन अर्थात् पीलिया होता है, तथा नाक मुख ] के जो जो लक्षण है, वही वही लक्षण सम्यक् और गुदा से स्राव होने लगता है।
कृत और अतिकृत विलक्षण के भी हैं । स्नेह के अनुचित प्रयोग का फल। | अर्थात् सम्यक कृत लंघन के जो विमलेन्द्रियअमात्रयाऽहितोऽकाले मिथ्याहारविहारतः
1: तादि संपूर्ण लक्षण कहे गये हैं ये सम्यक् नेहः करोति शोफार्शस्तंद्रास्तभावसंशताः कंडकुष्टज्वरोत्क्लेशशलाऽऽनाहभ्रमादिकान कृत विरूक्षण के भी हैं और अतिकृत लंघन
अर्थ-कुसमय अनुचित मात्रा में मिथ्या | के जो कृशता आदि लक्षण कहे गये हैं वेही आहार विहारादि के साथ जो स्नेहपान किया | अति विरूक्षण के भी हैं । जाता है उसका फल अच्छा नहीं होता, इस । स्नेहन के पीछे का कर्म । से सूजन, अर्श, तन्द्रा. जड़ता, संज्ञानाश,
स्निग्धद्रवोष्णधन्वोत्थरसभुक् स्वेदमाचरेत्
| सिग्धस्त्रयहं स्थितः कुर्याद्विरेकं वमनं पुनः । खुजली. कोढ, ज्वर, वमन. शूल. आनाह और
| एकाहं दिनमन्यच्च कफमुत्क्लेश्य तत्करैः भ्रमादिक उपद्रव उपस्थित होते है ।
___ अर्थ-स्नेहन क्रिया के द्वारा स्निग्ध होने . स्नेहविधिविभ्रंश में कर्तव्य ।।
के पीछे स्निग्ध, द्रव और उष्ण जांगल क्षुतृष्णोल्लेखनस्वेदरूक्षपानान्नभेषजम् । तक्रारिष्ट खलोहालयवश्यामाककोद्रवाः३३
मांसरस भोजन करके पसीना लथै, पसीना पिप्पलीत्रिफलाक्षौद्रपथ्यागोमूत्रगुग्गुलु।
लेने के तीन दिन पीछे विरेचन लेवै । किन्तु यथास्वंप्रतिरोगंच ने इज्यापदिसाधनम् ३४ यदि स्नेह के पीछे वमन क्रिया ही उपयोगी ___अर्थ-स्नेहविधि के विभंस होने पर क्षुधा हो तो उक्तरूप से मांसरस भोजन कर के - पाठांतर-मृदुस्निग्धांगताग्लानिः स्नेहो
पसीना लवै । स्वेद लेने के एक दिन पीछे द्वेगांगलाघवम् । विमलेन्द्रियता सम्यक कफकारक हेतु द्वारा कफ को उपलशित स्निग्धे रुक्षे विपर्ययः।
करके वमन द्वारा निकाल देवे। .
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