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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रस्थान भाषाटीकासमेत । अ० ११ स्नेहका पान करना जठराग्नि के प्रदीप्त हो ने के कारण पच जाता है और शोधन कार्य में असमर्थ हो जाता है । पूर्वोक्त हेतु सेक्षुति को वमन भी नहीं होती है । भुक्षित को स्नेहोपयोग | शमनः क्षुद्रतोऽनन्नो मध्यमात्रश्च शस्यते । अर्थ - रोग के शमन के निमित्त भूखके प्रवल होने पर स्नेहपान कराना चाहिये, केवल पूर्वदिनका अन्न पचने पर ही नहीं देवें । क्योंकि शमन के निमित्त जो स्नेह दिया जाता है वह सम्पूर्ण शरीर में प्राप्त यस् कुपित दोषों को शांत कर देता है । केवल पहिले दिनका आहार पचने पर ही बिना क्षुधा लगे निरन्न जो स्नेहपान कराया जाता है वह ककसे उपलिप्त होने के कारण सब देह में नहीं फैल सकता है इसलिये दोषों का शमन भी नहीं कर सकता है । इसमें स्नेह की मध्यममात्रा देना उचित है । रादिसहस्नेहोपयोग | बृंहणो रसमधाद्यैः सभक्तोऽल्पः हितः स च ॥ बाल वृद्धपिपासार्तस्नेह द्विष्मद्यशालिषु । स्त्रीस्नेह नित्य मंदाग्निसुखितक्लेशभरुषु ॥ मृदुकोष्ठाऽल्पदोषेषु काले चोष्णे कृशेषुच । अर्थ- बृंहण के निमित्त गांसरस मद्यादि के साथ अति अल्प मात्रामें स्नेहका प्रयोग 'करे । यह अन्न के साथ ( सभक्त ) दिया हुआ स्नेह बालकबृद्ध, तृषार्त, स्नेहसे द्वेष रखनेवाले, मद्यप, स्त्रीसे निरंतर स्नेहमें रत, मन्दाग्निपीडित, सुखी, क्लेशभीरु, मृदुकोष्ठ वाले, अल्पदोषयुक्त और कृश व्यक्ति को ग्रीष्मादि काल में हितकारी है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४७१ स्नेहपान का फल ! प्राङ्प्रध्योत्तरभक्तोऽसावधो मध्योर्ध्वदेहजान् व्याधीन् जयेद्वलं कुर्यादंगानां च यथाक्रमम् । अर्थ - भोजन के आदि में किया हुआ, स्नेहपान देहके अधोभागमें उत्पन्न हुए रोगों को नष्ट कर देता है और उनमें वल की वृद्धि करता है । भोजनके मध्य में किया हुआ स्नेहपान शरीर के मध्यभाग के रोगों को नाश करके उनको वलिष्ठ करता है । तथा भोजन के अंतमें कियाहुआ स्नेहपान शरीर के ऊभाग के रोगों को नष्ट करके उनको वलवान् बनाता है । यह भी कहा ह "मारुतेऽभ्यधिक सर्पिः सदा सलवणं हितम् । केवलं चाधिके पित्ते कफे सत्र्यूषणं तथा" । उष्णोदकपानविधि । वार्युष्णमच्छेऽनुपिवेत् स्त्रे हे तत्सुखपतये ॥ आस्योपलेप शुद्धयै च तौवरारुष्करे न तु । जीविकायां पुनरुष्णोदकं तेनोद्वारविशुद्धिः स्यात्ततश्व लघुताः । अर्थ -अच्छ स्नेह पान करनेके पीछे गरम जल पीना उचित है, " क्योंकि इससे पिया हुआ स्नेह सहजही में परिपाक को प्राप्त हो जाता है, तथा चिकनाई से हिसा हुआ मुखभी शुद्ध होजाता है । परन्तु तुबुर वा भिलावे का तेल पीकर गरम जल न पीना चाहिये क्योंकि ये उष्णवीर्य हैं । For Private And Personal Use Only स्नेहपान के बहुत देर पीछे यदि यह शंका हो कि स्नेह पचा है वा नहीं तो फिर गरम जल पीना चाहिये गरम जल पीने से डकार शुद्ध आने लगेगी और शरीर में हलकापन तथा रुविभी बढेगी ।
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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