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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४६) अष्टांगहृदये। अ ०१६ अर्थ-रसके तिरेसठ प्रकारों का वर्णन | स्नेह प्रयोग की कल्पना नहीं कहते हैं । पहिले कर चुके हैं | स्नेह पदार्थ के भी | इससे ग्रन्थ में विरोधआता है । इस विरोध येही तिरेसट प्रकार इन तिरेसठ प्रकारों के | का यही निराकरण है कि शुद्ध स्नेहपान साथ प्रयोग किये जाते हैं । रस भेद के | को कल्पना नहीं कह सकते हैं किन्तु शिंसाथ इनके प्रयोग की कल्पना भी तिरेसठ रोविरेचन, और कर्ण नेत्रादि तर्पण में जो प्रकार की है । रसको छोड़कर केवल स्नेह | केवलमात्र स्नेहका प्रयोग किया जाता है का प्रयोग होता है, इसी तरह सव मिला- वही स्नेहप्रयोग की कल्पना है । कर स्नेह प्रयोग की कल्पना के ६४ प्रकार स्नेहकी त्रिविधमात्रा। होते हैं । अनेक प्रकार के भक्ष्य पदार्थों के द्वाभ्यां चतुर्भिरष्टाभिर्यामै यति थाःक्रमात साथ तथा तिरेसठ प्रकार के रस भेदों के | हृस्वमध्योत्तमामात्रास्ताभ्यश्च हुसीयसीम् साथ शिरोविरेचन और कर्णनेत्रादि के त- | कल्पयेद्वीक्ष्य दोषादनि प्रागेव तु हसीयसीम् पेय में अल्पमात्रा का प्रयोग किये जाने से हस्तने जणि एवान्ने स्नेहाऽच्छःशुद्धयेबहुः। __ अर्थ-स्नेहकी जो मात्रा दो पहर में पस्नेह पदार्थ के गुण अभिभूत हो जाते हैं | च जाती है वह हस्वमात्रा है, जो चार और इसी प्रकार से स्नेह प्रयोग की कल्पना पहर में पचती है वह मध्यमात्रा है और १४ प्रकार की होती हैं। | जो आठ पहर में पचती है उसे उत्तम . . अच्छपेय स्नेह । यथोक्तहेत्वभावाच्च नाऽच्छपेयो विचारणा।| मात्रा कहते हैं । दोष, भेषज, देश, काल, स्नेह कल्पःस श्रेष्ठः स्नेहकर्माशुसाधनात् । । बल, शरीर, आहार, सत्व, सात्म्य, और अर्थ-चौसठ प्रकार की स्नेह प्रयोग की | प्रकृति इन पर लक्ष करके अज्ञात कोष्ठमें कल्पना के जो जो हेतु कहे गये हैं । उस प्रथम हस्वमात्रा का प्रयोग करना चाहिये, उस हेतु के अभाव में केवल मात्र जो अ- फिर प्रयोजन पड़ने पर मध्यम और उत्तम च्छपेय निर्मल स्नेहपान है उसको स्नेह प्र- मात्रा का प्रयोग करै । क्योंकि अज्ञात कोष्ठ योग की कल्पना नहीं कहते हैं | जितनी में प्रथम ही उत्तम मात्रा दे देने से अनेक प्रकार के स्नेहपान होते हैं उनमें अच्छपेय स्थानों में बिपद का उपस्थित होना संभव ही श्रेष्ट है, क्योंकि इसके द्वारा शरीर का है इस लिये हस्वमात्रा का ही प्रयोग करना तर्पण और मार्दवादि क्रिया शीघ्र साधित | चाहिये । किन्तु यदि शोधन अर्थात् विरेचहोती है । किन्तु यहां यह आपत्ति उप- नादि के निमित्त स्नेहपान करना हो तो स्थित होती है कि पहिले श्लोक में केवल | पूर्व दिन का किया हुआ आहार पचने मात्र स्नेह प्रयोग को भी चौंसठ प्रकारों में | पर भूख का उदय न होने पर भी स्नेहपासे एक प्रकार का कहकर गणना करली नका प्रयोग अधिक प्रमाण अर्थात् उत्तम है । किन्तु इस जगह शुद्ध स्नेहपाम को मात्रा में करै । क्षुधा उत्पन्न हो जाने पर For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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