________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूत्रस्थान भाषाकासमेत ।
SHREE
अर्थ-जो बुद्धि, स्मृति, मेधा, और अ. . धर्मेऽपि च घृतं निशि ॥ १२ ॥
निश्येव पित्ते पवने संसर्गे पित्तवत्यपि । ग्नि की अभिलाषा करते हैं उनको स्नेहन
निश्यन्यथाबातकफाद्रोगाः स्युःपित्ततो दिवा कर्म में घृत प्रशस्त है, आदि शब्द से स्वर
अर्थ- तेल बर्षाकालही में और घत आयु और वर्णका भी ग्रहण है । जो ग्र.
केवल शरत्कालहीमें प्रयोग किया जाताहै न्थिनाडी बा क्रमि, श्लेष्मा, मेद और वात रोगों से पीडित है जो शरीर में हलकापन
यह बात नहींहै किन्तु व्याधि की दशा के
अनुसार यदि स्नेह क्रिया की आवश्यकता और दृढता चाहते हैं तथा जिनका कोष्ठ क्रूर है उनको तेल उतम है । जिनके धा
शीघूही हो तो हेमंत और शिशिरादि शीततु हवा वा धूपक लगने से, मार्ग चलनेकी
कालमें भी तैलका प्रयोग किया जासकताहै । थकावट से, वहुत बोझ ढोने से, स्त्रीसंग
इसीतरह वायु वा पित्तका अथवा वातपित्त और व्यायाम से क्षीण होगये हैं, जिनकी
दोनों का कोप होनेपर अथवा इनसे उत्पन्न देह रूक्ष है जो कष्ट सह सकते हैं, जिन
हुए अन्य विकारों में ग्रीष्मकालमें भी रात्रि की अग्नि तीक्ष्ण हैं, जिनकी देह के स्रोत
के समय घृतका प्रयोग किया जासकताहै । यायुद्वारा रुक गये हैं ऐसे रोगियों के लिये
इससे अन्यथा किये जानेपर अर्थात् शीतवसा और मज्जा, हितकर हैं किन्तु संधि,
कालमें रात्रिके समय घृतका प्रयोग करनेसे
कफ जनित रोग और ग्रीष्मकालमें दिनके अस्थि, मर्म और काष्ठको वेदना में तथा देह के अग्नि से जल जाने में, चोट में
समय तैल का प्रयोग करनेसे पित्तजनित योनिभ्रंश से उत्पन्न वेदना में और शिरो- राग होजातह । रोग में वसा ही उत्तम है।
स्नेह के उपयोग की विधि । ... भिन्नभिन्न स्नेहनका काल । युक्त्याऽवचारयेत्स्नेहं भक्ष्याान्लेन वस्तिभिः
लं प्रावृवि वर्षात सर्पिरन्यौ तु माधवे॥२१॥ नस्याभ्यंजनगंडूषमूर्धकर्णाऽझितर्पणैः ॥१४॥ ऋतौसाधारणे नेहः शस्तोऽह्रिविमले रवौ। अर्थ- घृतादिक स्नेह पदार्थ युक्तिके . अर्थ-वर्षाकाल में तेल, शरत्काल में
अनुसार अर्थात् मात्रा, काल, क्रिया भूमि, घृत, और वसंतकाल में वसा मज्जा, स्नेहन | देह, दोष, ओर स्वभाव पर लक्ष रखकर कर्म में प्रशस्त हैं । किन्तु साधारण ऋतुर्मे | भक्ष्य भोज्य लेद्य, पेय अन्नके साथ अथवा वस्ति संशोधन से पूर्व स्नेहन के लिये तैलादि ।
किया ( निरूहण, अनुबासन और उत्तर ) प्रशस्त हैं, यह भी दिन के समय जब कि
नस्य, अभ्यंजन, गडूबधारण, शिरोवस्ति, सूर्य की किरणें बादल, कुहरा आदि से |
कर्णपूरण वा नेत्रतर्पण दारा प्रयोग करै । अनाच्छादित हो ।
__ स्नेहकी ६४ विचारणा । .. ... रात्रि स्नेहनविधि। रसभेदैककत्वाभ्यां चतुःषष्टिर्विचारणा। तेल त्वणयां शितेऽति
रहस्याऽऽज्याभिभूतत्वावल्पत्वावक्रमात्स्मृता
For Private And Personal Use Only