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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकित्सितस्थान भाषाटीकासमेत । (५१५] यथोत्तरं भागवृद्धया त्वगेले चार्धभागिके।। कफका प्रसेक होता है,अतएव वैद्यको उचितहव्यं दीपनं चूर्ण कणाष्टगुणशर्करम् ५९ ॥ त है कि कफका अत्यन्त प्रसेक होनेपर वा. कासश्वासारुचिच्छर्दिप्लहिहत्पार्श्वशूलनुत् तनाशक स्निग्ध और उष्ण क्रियाओं द्वारा पांडुज्वरातिसारघ्नं मूढवातानुलोमनम् ॥ ___ अर्थ-तालीसपत्र, कालीमिरच, सोंठ, कफप्रसेक का शमन करै छोटी पीपल, बडी पीपल, इनको एक एक पीनसादि में कर्तव्य । । भाग बढा करले और दालचीनी तथा पीनसेऽपि क्रममिमं वमथौ च प्रयोजयेत् ॥ विशेषात्पीनसेऽभ्यंगान् स्नेहस्वेदांश्चइलायची प्रत्येक आप आधे भाग, इनको कू शीलयेत् ॥ ६४ ॥ ट पीसकर चूर्ण बनाले तथा पीपलसे अठ स्निग्धानुत्कारिकापिंडैः शिर पार्श्वगलादिषु गुनी शर्करा मिलाकर सेवन करै । यह चूर्ण लवणाम्लकट्रष्णांश्च रसान् स्नेहोपसहितान अग्निसंदीपन, खांसी, श्वास, अरुचि, वमन, ____ अर्थ-पीनस और वमनरोग में भी लीहा, हृदयशूल, पार्श्वशूल, पांडुरोग, ज्वर, ऊपर लिखी चिकित्सा करना चाहिये । अतिसार इनको दूर करता है तथा मूढवात विशेष करके पीनस रोग में अभ्यंग तथा का अनुलोमन करने वाला है। उत्कारिका और पिंडद्वारा सिर, पसली और प्रसेकमें भक्षणादि । गलेमें स्नैहिक स्वेद देवै. तथा स्नेहयुक्त अर्कामृताक्षीरजले शर्वरीमुषितैर्यवैः। नमकीन, खट्टे, कटु और उष्ण रसों का प्रसेके कल्पितान्सफ्तून् भक्ष्यांश्चाधादली वमेत ॥ ६१ ॥ कटुतिक्तैस्तथा शूल्यं भक्षयेज्जांगलं पलम् । सिरशूलादि में कर्तव्य । शुष्कांश्च भक्ष्यान सुलघूश्चणकादिरसानुपः | शिरोसपाचशूलेषु यथा दोषविधि चरेत् । - अर्थ-आक और गिलोयके काढेमें दूध औदकानूपपिशितैरुपनाहाः सुसंस्कृताः॥ मिलाकर उसमें रातभर जौ भिगो देवै, दूसरे तष्टाः सचतुः स्नेहाः ___ अर्थ-सिर, कंधे और. पसली के दर्दमें दिन उन जोओं का सत्तू अथवा कोई खानेका | दोष के अनुसार चिकित्सा करना चाहिये । पदार्थ बनाकर भोजन करे । यदि रोगी व तथा आनूप और औदक जीवों का मांस लवान् हो तो कटु और तिक्त द्रव्योंद्वारा व चार प्रकार के स्नेहों से अच्छी तरह मन करावे | जांगल जीवोंका शलपर भुना | संस्कार किया हुआ उपनाह स्वेद देना हुआ मांस खाय, अथवा हलके और सूखे चाहिये। पदार्थों को खाय और पीछेसे चना आदिका दोषसंसर्ग में लेप। रस पीवे, इससे मुखप्रसेक दूर होजाता है । दोषसंसर्ग इष्यते। कफपसेक में उपाय। प्रलेपो नतयष्टयाह्वशतावाकुष्टचंदनः॥६॥ श्लेष्मणोऽतिप्रसेकेन वायुश्लेष्माणमस्यति। बलारास्नातिलैस्तद्वत्ससर्पिर्मधुकोत्पलैः। कफासेकं तं विद्वान्निग्धोष्णरेव निर्जयेत् ॥ अर्थ-दो दो दोषों के संसर्ग से उत्पन्न अर्थ-वायु कफको फेंकता है, इसलिये | हुई व्याधिमें तगर, मुलहटी, सितावरी, कूठ, For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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